गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

घुटन

संध्या जब स्याह पालने में
पूरब के आसमान से उतरती है ,
मन के आँगन में एक उदासी झरती है -
ओस की बूंदों की तरह,
मेरे सपनों के पंख भीग जाते हैं ,
और वो पत्थर के हो जाते हैं
किसी अभिशप्त राजकुमार की तरह।
उदासी फिर झरती है ,
फुहार की तरह ,
पानी की नही -
तेजाब की।
मेरे मन के बदन पर उग आए फफोलों में
सारी रात टीस उठती है ,
और मै रात भर -
जुगनुओं की रोशनी में सूरज ढूँढता हूँ ।

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