गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

प्रतिच्छाया

कैसे जान पाओगी इसे
यह न तो शब्दों में ढल सकता है
और न ही चित्रों में उभर सकता है
कोई नही है इसका रंग रूप
यह न तो फूलों की खुशबू में समा सकता है
और न ही मोतियों की चमक में बिखर सकता है
परे है यह हर गंध और चमक से
यह न तो चेहरे के भावों में सिमट सकता है
और न ही आंसुओं में घुल सकता है
अव्यक्त है यह हर भंगिमा से
कैसे जान पाओगी इसे
यह जो मेरी नीदों में और जाग्रत पलों में
यह जो मेरे खाली और व्यस्त क्षणों में
हर पल चलता है मेरे साथ
तुम्हारी प्रतिच्छाया बनकर

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