गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

भ्रमित

मुस्कराते फूल और खिलखिलाते हुए बच्चे
तुम्हे भी अच्छे लगे होंगे,
महकती बगिया और हँसती हुयी दुनिया
कुछ ऐसे ही सपने तुम्हारे मन में भी पले होंगे ,
तुमने भी रखे होंगे पाँव उस राह पर
जो नगर की ओर जाती है ,
तुमने भी गढ़ी होगी वह बांसुरी
जो जीवन के मधुर संगीत सुनाती है
फ़िर क्या हुआ ऐसा
कि तुम्हारे बाग़ के फूल,
तुम्हारे हाथों ही मसले गए
वह स्वर्ग सी दुनिया और वो खिलखिलाते हुए बच्चे ,
सब तुमसे ही छले गए
क्यों मुड़ गयी जंगल कि ओर,
नगर कि वह राह
क्यों सुनाई देती है तुम्हारी बांसुरी से,
पीड़ित जीवन की कराह
अपनी अंतरात्मा की आवाज को ,
कब तक रहोगे अनसुनी करते
अपने ही कन्धों पर अपनी लाश लेकर
अट्टाहास करते
कब तक फिरोगे भटकते ,
कब तक फिरोगे भटकते.

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