रविवार, 10 अप्रैल 2016

प्रकृति और पुमान

आधी आबादी हूँ
आधी धरती और
आधे आकाश की अधिकारी हूँ . 

कब तक
बहला -फुसला कर
डरा- धमकाकर
अपने भावनात्मक प्रपंचों के जाल बिछाकर
वंचित रखोगे मुझे
मेरे अधिकारों से?

कब तक स्वार्थवश
स्वरचित विभूषणों के कुएँ में
मेढ़क की तरह तैरने  को
बाध्य करते रहोगे ?

मैं विचरूँगी स्वच्छन्द …धरती के अपने हिस्से में
मैं उडूँगी उन्मुक्त.... आकाश के अपने हिस्से में
नहीं बाँध पाओगे मेरे पैरों को …
नहीं काट पाओगे मेरे पंखों को.

मैं प्रकृति हूँ और तुम पुमान
सृष्टि और सृजन में
जो भागीदारी तुम्हारी है वही मेरी भी. 

मैं प्रेम करना चाहती हूँ  तुमसे
जुड़ना चाहती हूँ तुमसे
परन्तु
वैसे नहीं जैसे लता, वृक्ष से जुड़ती है …आश्रय के नाम पर नहीं
वैसे नहीं जैसे प्रजा, राजा से जुड़ती है... रक्षा के नाम पर नहीं 
वैसे नहीं जैसे मनुष्य, ईश्वर से जुड़ता है… पालन के नाम पर नहीं
अपितु उस तरह
जैसे पवन के बहाव में वृक्ष की दो शाखाएँ  मिलती हैं
जैसे सूर्यमुखी से उषा की किरनें मिलती हैं
जैसे रात में , चाँदनी धरती से मिलती है.

मैं तुमसे कुछ भी नहीं माँग रही
मैंने तो दिया ही है सदैव
अगर कर सको तो
अपना पुरुषत्व ऊँचा कर लो
और पा लो मुझे किसी रूप में।

अच्छा लगता है


अच्छा लगता है 
कभी कभी अतीत के पन्नो को पलटना 
किसी पृष्ठ पर रुक कर उसे हौले से सहलाना
और उस पर उभर आई तस्वीरों में कुछ देर के लिए गुम हो जाना 

अच्छा लगता है 
चलते चलते कभी ठिठक जाना 
पीछे मुड़कर पगडंडियों के घुमाव को देखना 
और अपने स्थितिजन्य साहस पर आत्म-मुग्ध हो जाना 

अच्छा लगता है 
कभी, किसी का, "हमारे अनकहे" को समझ जाना 
अपनी निःशब्द बातों का प्रत्युत्तर पाना  
और अंतह की रिक्तता का मधुर अहसासों से भर जाना

चाँद के पैरों में छाले पड़ गए हैं


सत्य के होठों पे ताले पड़ गए हैं
चेहरे लोगों के काले पड़ गए हैं

धमनियों में दौड़ता बेरंग पानी
लाग रंग के आज लाले पड़ गए हैं

घर बहुत ही साफ़-सुथरे हैं सभी के
पर दिलों में कितने जाले पड़ गए हैं

देखना कौवे बनेंगे हंस अब तो 
उनके काँधों पे दुशाले पड़ गए हैं 

बैठ इतराते हैं ऊँची टहनियों पर 
मुँह में गिद्धों के निवाले पड़ गए हैं 

हो चुका है गर्म इतना आसमाँ कि 
चाँद के पैरों में छाले पड़ गए हैं

घट रीता; कैसे भर पाऊँ



घट रीता;  कैसे भर पाऊँ 
पल बीता; कैसे फिर लाऊँ 

जिस पर तेरा चिह्न नहीं है 
उस पथ पे क्यों कदम बढ़ाऊँ 
भोर अकेला, साँझ उदासी 
रात दुखी, कुछ कर न पाऊँ     

बदल चुका बगिया का मौसम 
कैसे कोपल को समझाऊँ 

कौंधे जब मुस्कान हृदय में 
पुनि पुनि मैं बलिहारी जाऊँ 
काश कभी ऐसा हो जावे 
आँख खुले तो तुमको पाऊँ

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

आदमी जो सोचता है


यूँ तो अपनी ओर से कोई कसर कब छोड़ता है
पर कहाँ होता भला वो, आदमी जो सोचता है

नींद रातों की, सुकूँ दिन का नहीं बिकता कहीं भी
इन को पाने का हुनर तो बस फ़कीरों को पता है

एक पल में है बुरा; अच्छा बहुत ही दूसरे पल
क्या अजब फितरत, कभी दानव, कभी वो देवता है

ज़िन्दगी के नाव की पतवार रिश्तों का यकीं है 
डूब जाती एक दुनिया, जब भरोसा टूटता है  

धूप या छाया मिले, स्वीकारना पड़ता सभी को
पर रखे समभाव कैसे, कोई विरला जानता है 

दर्द भी, आनंद भी, सौगात भी, संघर्ष भी है
बात ये कि ज़िन्दगी को कौन कैसे देखता है

सफर अंजान है

सफर अंजान है और रास्ते उलझे हुए
भटक जाते सभी अक्सर यहाँ चलते हुए

उजाले बेचने का कर रहे व्यापार जो 
जमाने से अँधेरे में हैं खुद बैठे हुए 

कोई तो फ़ायदा उसको दिखा होगा जरूर
नहीं तो कौन मिलता है यहाँ हँसते हुए

नहीं फुर्सत उठाने से है उँगली और पे
बड़ी मुद्दत हुई , खुद को उन्हें देखे हुए 

हवाओं की सवारी का जो दम भरते रहे
उन्हें देखा जमीं पे मुँह के बल गिरते हुए

लिबासों पर निछावर उम्र सारी कर दिया 
मगर लौटोगे घर कोरा कफ़न पहने हुए

दिखाएगा भला तस्वीर सच्ची कौन अब
बदलते दौर में सब आईने झूठे हुए 

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

मंथन

बिलोड़ लेने दो समय को 
हमारा जीवन-घट,
अलग हो जाने दो
एक एक अवयव 
भँवर के तरंगों पर झूलता हुआ 
जो श्रृंग तक पहुंचेगा, 
मंथन रूकने पर 
वही हमारे द्रव्य की पहचान बनेगा।  

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

बंशी की टेर उठे


बंशी की टेर उठे नदिया के तीर
मन में जगाए
अनजानी सी पीर
 
बंशी की टेर उठे नदिया के तीर

नावों के पाल फटे
हहराती लहर उठे
आज हैं हवाएँ क्यों
इतनी अधीर
 
बंशी की टेर उठे नदिया के तीर

बदरी ने चाँद हरा
मनवा में स्याह भरा
आँखें चकोर की
बरसाएँ  नीर
 

बंशी की टेर उठे नदिया के तीर

ररुही ने राग भरे
असगुन ने पाँव धरे
विरहन की आह उठे
जियरा को चीर 

बंशी की टेर उठे नदिया के तीर

गुरुवार, 10 मई 2012

मेरी सुबह- दो रंग

एक -
सुबह बहुत चमकीली हो जाती है
जब रात भर
मेरी पलकों में डोलती तुम्हारी मुस्कराहट
आँखें खुलने पर
रश्मि-पुंजों सी
धरती से अम्बर तक खिंच जाती है

सुबह बहुत संगीतमय हो जाती है
जब रात भर
मेरे कानों में गूँजती तुम्हारी खिलखिलाहट
आँखें खुलने पर
गौरैया सी
क्षितिज की शाख पर चहचहाती है  

सुबह बहुत रंग मय हो जाती है
जब रात भर
मेरे हिय-उपवन में लहलहाती तुम्हारी ख़ुशी
आँखें खुलने पर
बहुरंगी पुष्पों सी
मेरे द्वार की क्यारियों में खिल जाती है
---------------------------------------------------

दो-

सुबह बहुत रागमय हो जाती है
जब रात भर
मेरे उर-प्रान्त में झरती तुम्हारे चेहरे की स्निग्धता
आँखें खुलने पर
ओस की बूँदों सी
मेरे अहसास के पत्तों पर बिखर जाती है

सुबह बहुत सुवासित हो जाती है
जब रात भर
मेरे चाह की साँसों में घुलती तुम्हारी सुगंध
आँखें खुलने पर
मलयज सी
मेरे अंतर और वाह्य को महकाती है  

सुबह बहुत मादक हो जाती है
जब रात भर
मेरे उर-भित्तियों पर चित्रित होती तुम्हारी देहाकृति
आँखें खुलने पर
चाँद सी
मेरे कामना-सिन्धु पर झुक जाती है
.

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

तुम भी चलो, हम भी चलें

आरोह या अवरोह होगा, राह में किसको पता
होगी प्रचुरता कंटकों की, या सुमन की बहुलता
ज्योतिर्मयी होंगी दिशाएँ, या कुहासों से भरी
रजनी शिशिर की या अनल की वृष्टि करती दुपहरी

चलना नियति है; चेतना का है यही आधार भी
कर्तव्य भी अपना यही, बस है यही अधिकार भी
है अग्निपथ तो क्या हुआ, कटिबद्ध चलने के लिए
उच्छ्ल जलधि ले प्राण का, तुम भी चलो, हम भी चलें

अवरोध कितने ही मिलेंगे राह को रोके हुए
संकेत बहुतेरे दिखेंगे दिग्भ्रमित करते हुए
फुँफकारते विषधर बहुत से रुढ़ियों के भी खड़े
बहु झुंड होंगे वर्जना के नागफनियों से अड़े

पग पग मिलेंगी वासनाएँ ओर अपनी खींचती
औ' वृत्तियाँ कुत्सित डरातीं, मुट्ठियों को भींचती
पर नवसृजन का स्वप्न स्वर्णिम, चक्षु में अपने लिए
संबल बनाकर सत्य को, तुम भी बढ़ो, हम भी बढ़ें

हम अनवरत चलते रहें, हो तप्त कितनी भी धरा
हो वेदना कितनी सघन, हो पाँव छालों से भरा
जलते हुए वड़वाग्नि से है अब्धि कब विचलित हुआ
कब रोक पाया है जलद, नित अग्रसर रथ भानु का

कोई नहीं इतना सबल जो टिक सकेगा सामने
पावक, वरूण, क्षिति, वायु, नभ पलते मनुज के बाहु में
भर आत्म उर्जा से निरन्तर, मनुजता की राह में
सोपान नित उत्थान के, तुम भी चढ़ो, हम भी चढ़ें

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

पुनरावृत्ति

जीवन भर
हम पुनरावृत्ति करते हैं
शब्दों की,
भावनाओं की,
क्रियाओं की,

और गढ़ते हैं
नई बातें...नई कविताएँ,
नए आकर्षण...नए रिश्ते,
नए संसाधन...नए प्रयोजन,
निरंतर...पूरे उत्साह से.

ऐसा नहीं कि
पुनरावृत्ति नीरस और उबाऊ नहीं होती...
..................होती है...
किन्तु, तब तक नहीं
जब तक
उससे नवीनता जनमती है.

बुधवार, 18 जनवरी 2012

बंधनरत

वह बँधा रहा है जन्म से ही...
बल्कि जन्म के पहले से ही...
अस्तित्व-निर्माण की प्रक्रिया के समय से ही....
दृश्य- अदृश्य,
सुखद- कष्टकारी,
चमकीले- स्याह,
चाहे-अनचाहे बन्धनों में.

कुछ को वह चुनता है
कुछ को स्वयं बुनता है
कुछ लिपट जाते हैं उससे अनायास
अस्तित्ववश, प्रकृतिवश, जिजीविषावश .

कुछ चुभते हैं कँटीले तारों से
जिनसे छूटने को वह छटपटाता है
कुछ सहलाते हैं मृदुल फुहारों से
जिन्हें (स्वयं को) समर्पित कर वह तृप्ति पाता है.
किन्तु,
बँधा रहता है सतत...उम्र भर.

और जब तक बँधा रहता है
तभी तक "वह" रहता है
जब मुक्त होता है
पञ्च तत्वों में विलीन हो जाता है,
एक आह
एक नाम
एक याद बन जाता है.

बुधवार, 11 जनवरी 2012

वर्ण-व्यवस्था

हे तुलसी !
तुमने राम को शबरी के जूठे बेर तो खिला दिए
किन्तु उसकी मिठास
तुम्हारे "मानस" तक ही रह गई.
तुम्हारे राम ने तो
रीछ, वानर और पक्षियों को भी भाई बनाया था
यहाँ, मानव की
मानव के प्रति संवेदनाएँ ही
वर्ण-व्यवस्था की राक्षसी निगल गई.

सोमवार, 9 जनवरी 2012

प्रतिदान

जो कुछ भी तुम्हें देता हूँ
उसे रख लिया करो चुपचाप
मत सोचा करो कभी
उसके प्रतिदान के बारे में .
क्योंकि
मेरा हर दिया गया
तुमसे ही उपजता है
पहले मुझे भरता है
फिर उमड़कर तुम तक पहुँचता है.

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

नई बात

कभी हाथों के बल चलते हुए आदमी को देखा होगा
तमाशबीनो से घिरे वृत्त के भीतर
उसके चक्कर पूरा करने पर
तालियाँ पीटते हुए एक सिक्का भी फेंका होगा।

कभी कभी उल्टी बातें भी अच्छी लगती हैं
किन्तु,
सिर्फ कुछ देर रुक कर
भीड़ में खड़े हो जाने के लिए।
कुछ देर,
नएपन से अचंभित होकर तालियाँ बजाने के लिए.

वह आदमी
जब हाथों के बल चलता है
बस तमाशबीनो से घिरे वृत्त में गोल गोल घूमता है.
कभी भी
कोई दूरी नहीं तय कर पाता है
और
एक गाँव से दूसरे गाँव तक
पैरों से ही चल कर जाता है.

रविवार, 4 दिसंबर 2011

कुछ सामयिक दोहे

देश बना बाज़ार अब, चारो ओर दुकान
राशन है मँहगा यहाँ, सस्ता है ईमान

राजा- रानी तो गए, गया न उनका मंत्र
मतपेटी तक ही सदा, रहा प्रजा का तंत्र

सर्वाहारी क्यों इसे, बना दिया भगवान ?
ज़र,जमीन,पशु-खाद्य तक, खा जाता इंसान

गंगाएँ कितनी बहीं, 'बुधिया' रहा अतृप्त
जब जब है सूखा पड़ा, नेता सारे तृप्त

बापू , तुम लटके रहो, दीवारों को थाम
नमन तुम्हें कर नित्य हम, करते 'अपना काम'

सुखदतम यह होता है

सुखदतम यह नहीं होता कि
हम किसी की कल्पनाओं के अनुरूप स्वयं को ढ़ाल लें
और उसके मन-मंदिर में प्रतिष्ठित हो जाएँ.
सुखदतम यह होता है कि
किसी की कल्पनाओं का स्वरुप हमारे जैसा हो जाए
और वह हमें अपने मन-मंदिर में बसा ले
सारे गुण-दोषों के साथ.

सुखदतम यह नहीं होता कि
शुभ्र ज्योत्सना से आच्छादित पुष्प कुञ्ज में बैठ
हम अपने प्रिय के मुखमंडल की धवलता अपनी आँखों में भरें .
सुखदतम यह होता है कि
जब अमावस की रात में हम उसे देखें
दसों दिशाएँ धवल हो जाएँ,
उसके चेहरे के उल्लास से...उसकी आँखों की चमक से.

सुखदतम यह नहीं होता कि
हमारे जीवन पथ पर बस पुष्प ही बिछे हों
और हम उनकी कोमलता तथा सुवास में डूब कर चलते चले जाएँ.
सुखदतम यह होता है कि
हमारी राह का हर कंटक
हमारे नेह-जल से कोमल हो जाए,
हमारे मधुर-स्पर्श से सुवासित हो उठे.

सोमवार, 21 नवंबर 2011

स्मृति

तुम प्रतिष्ठित हो
उस हर क्षण में
जिनसे होकर मैं गुजरता हूँ
अदृश्य, अगोचर…
विलीन हो हर मूर्त और अमूर्त में,
जो भी मेरे चक्षुओं
और मन की दृष्टि की परिधि में आता है.

जब भी तुम्हारा स्मरण मानस में उभरता है,
हर वस्तु आलोड़ित हो उठती है
किसी तरल की तरह
और उस पर डोलती हुई चंचल तरंगें
तुम्हारी आकृति उकेर देती हैं,
तुम्हारी मुस्कान बिखेर देती हैं

तुम मेरा प्यार हो.....

तुम मेरा प्यार हो.....

तरुणाई के स्वप्नों की मिठास हो
उषा की पहली किरन की उजास हो
मेरे प्रभात-वंदन का स्वर हो
अर्घ्य-पुष्प-चन्दन की सुवास हो

शिवाला के घंटों का अनुनाद हो
मेरी प्रार्थना का संवाद हो
आरती की ज्योति हो
जलार्पण की धार हो
तुम मेरा प्यार हो.

नीम की शाखों पर गौरैयों का गान
गंगा की लहरों पर किरणों का नृत्य हो
मेघ की तूलिका से अम्बर पर उभरा
मेरी कल्पनाओं का चित्र हो

साँझ के आँचल में पलती अस्फुट चाह हो
अंतिम प्रहर की ठंडी बयार हो
शरद के धूप की गुनगुनाहट हो
सावन की पहली फुहार हो
तुम मेरा प्यार हो

प्रथम बेला की पहली कामना हो
मेरे सर्व सुख की सकल साधना हो
मेरे हर आरोहण का अवलम्ब हो
मेरे हर अवरोहण की सांत्वना हो

मेरे सूक्ष्म का चिंतन हो
मेरे स्थूल का आलिंगन हो
मेरी भौतिकता की पूर्ण प्राप्ति हो
मेरी आध्यात्मिकता का चिरंतर आधार हो
तुम मेरा प्यार हो.

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

करो सच्ची इबादत

करो सच्ची इबादत, फिर इबादत का असर देखो
उफ़नती मौज़ पर बनती हुई एक रहगुज़र देखो

ये उजली चाँदनी भी रात का ही इक नज़ारा है
न लिपटो बाँह से इसकी, बढ़ो, रोशन सहर देखो

किसी बच्चे के  आँखों की चमक तुम रोप लो दिल में
क्षितिज तक झिलमिलाती रोशनी फिर उम्र भर देखो

बिना सोचे ही भागे जा रहे कब से अन्धेरे में
कहाँ जाती हैं ये राहें कभी पल भर ठहर देखो

कोई नफ़रत मुहब्बत से बड़ी होती नहीं यारों
मिटेंगी रंजिशें, दो बोल मीठे बोल कर देखो

झुक है चाँद कोई आज फिर दिल के समंदर पर
मेरे जज़्बात की लहरें मचलतीं किस कदर देखो

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

उठ सतह से

पंथ यह
मधुमय नहीं,
पुष्प पल्लव से सदा
रहता है आच्छादित नहीं.
यदि कंटकों की हो प्रचुरता,
पंथ मत तज
उठ सतह से  !
चल पवन के संग तू.

निर्मल सदा
होता नहीं है हर सरोवर,
पंक मिश्रित अम्बु हो यदि,
श्वास लेना  हो जो दुष्कर ,
मत्स्य मत बन
उठ सतह से  !
खिल जा कमल बन.

तू मलयगिरी की
सुवासित गंध बन.
इन्द्रधनु बनकर
चला स्यंदन गगन के भाल पर.
उज्ज्वल बने प्रत्येक कण
स्पर्श से,
हो जा प्रकीर्णित
भोर की पहली किरन बन.

पंथ यह मधुमय नहीं
उठ सतह से
चल पवन के संग तू
खिल जा कमल बन
हो जा प्रकीर्णित
भोर की पहली किरन बन

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

रावण कभी भी तो न मारा जा सका

रावण कभी भी तो न मारा जा सका
बस गात ही खंडित हुआ था
वाण से श्रीराम के.
वह प्रतिष्ठत है युगों से मनुज के भीतर,
सदा पोषित हुआ
आहार, जल पाकर
निरंकुश कामनाओं, इन्द्रियों का.

राम कोई चाप लेकर
खड़ा भी होता अगर है
लक्ष्य सारा-
मारना रावण सदा ही दूसरे का.
स्वयं का रावण विहँसता
खड़ा अट्टहास करता दसो मुख से,
सहम जाता राम
धन्वा छूट जाती है करों से.

यत्न सारा
विफल होता ही रहा
संहार का दससीस के.
बस प्रतीकों पर चलाकर वाण
है अर्जित किया उल्लास के कुछ क्षण मनुज ने.

किन्तु जब तक राम सबके
उठ खड़े होते नहीं संहार को
प्रथम अपने ही दशानन के,
सतत उठती रहेगी
गूँज अट्टहास की,
सहमते यूँ ही रहेंगे राम
विहँसता रावण रहेगा सर्वदा.

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

आर्तनाद

तुम चली गई
मुझे एक अंतहीन नीरवता से आच्छादित करके.
मेरे तर्क
जो कभी मेरी मिथ्या श्रेष्ठता सिद्धि के वाहक होते थे,
आज मेरी तरफ भृकुटी ताने खड़े हैं.

मैंने तुम्हें चाहा था बहुत....पूरे अंतर्मन से...
हर पल तुम्हारी अभिलाषा की थी
हर क्षण तुम्हारी प्रतिच्छाया में ही लिपटा रहा
मेरे अन्तस्थ और बहिरत तुम ही रही

नहीं...मिथ्या हैं ये शब्द.....बिल्कुल मिथ्या !

सच तो यह है कि
मैंने चाहा था तुम्हारे चक्षुओं में
प्रतिष्ठित अपनी आकृति को
मैंने चाहा था मुझे निरख
तुम्हारे मुख पर प्रस्फुटित उल्लास को
मैंने चाहा था मुझमें राग भरते
तुम्हारे घन-केश, संदल-देह और स्नेहिल अंकमाल को
मैंने चाहा था, मेरे निमित्त
तुम्हारे हर क्रिया कलाप को
मैंने चाहा था तुममें
मात्र अपने आप को.

कहाँ चाह पाया था तुम्हें कभी?
कहाँ आत्मसात कर सका था तुम्हारे स्व को?
कहाँ विगलित कर पाया अपना स्वत्व तुममे.
कहाँ जी पाया एक क्षण के लिए भी "तुम' बनकर.
कुछ भी तो नहीं दे सका तुम्हें.
अपने अहम् का
एक अंश भी नहीं समर्पित कर सका.

अन्यथा तुम नहीं जाती....
तुम नहीं जा पाती....
यदि समर्पण का कुछ भार डाल दिया होता तुम पर
तुम नहीं अलग हो पाती
यदि स्वयं को थोड़ा मिला दिया होता तुममें.

किन्तु मैं ऐसा कर नहीं पाया...
और तुम चली गई
मुझसे निराश होकर.....

(स्वगत)
अजीब सी नीरवता है....
नहीं, यह नीरवता नहीं
मेरे खंडित अहम् का आर्तनाद है.

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

तुम प्रेम-दीप

तुम प्रेम-दीप,
तुम राग-ज्योति
अंतह में मेरे प्रस्थापित,
उर-आँगन
जीवन-उपवन
हर पल प्रदीप्त
हर पल आलोकित.

तुम प्रेम-अब्धि,
तुम राग-सरित
हो हृदय-धरा पर
कल-कल वाहित
आनंद, हर्ष की
विपुल राशि तुम
भरती मुझमे जीवन-अमृत

तुम प्रेम-मेघ,
तुम राग-सलिल
झरती मुझमें
रिमझिम- रिमझिम
कण कण मेरे
प्राण-गात का
सरस, सिक्त, अतिशय मधुरिम.

हृदय, प्राण,
मन पर आच्छादित,
रोम रोम पर तुम अंकित,
तुममे मैं हूँ,
तुम मुझमे हो,
गात विलग, हिय एक किन्तु.

सघन स्नेह
साधे सौरभ,
मन मुग्ध, मुदित, मधुमय, मुकुरित.
प्रेम-पयोधि
प्रखर प्रवेग
अहा अनुराग ! अंतह अभिजित.

सोमवार, 16 मई 2011

एक राग-मय सुबह

कितना मोहक यह प्रभात !

पूर्व क्षितिज स्मित-कंचन
निर्झर में वाणी-गुंजन
इन्द्रधनुष तेरी चितवन

हँसी बिखरती पात पात
कितना मोहक यह प्रभात !

प्रेम-पवन अति उच्छॄंखल
राग-सरित बहती कल कल
चहुँ-दिश फैली ज्योति नवल

सुख सागर अतिशय उदात्त
कितना मोहक यह प्रभात !

रोम रोम मेरा मधु सिक्त
तार तार हिय का झंकृत
हर सूक्ष्म -स्थूल तुमसे आवृत

लहराता मन-प्राण-गात
कितना मोहक यह प्रभात !

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

सवैया

चाँद चलै नहि रात कटै, यह सेज जलै जइसे अगियारी
नागन सी नथनी डसती, अरु माथ चुभै ललकी बिंदिया री !
कान का कुण्डल जोंक बना, बिछुआ सा डसै उँगरी बिछुआ री !
मोतिन माल है फाँस बना, अब हाथ का बंध बना कँगना री !

काजर आँख का आँस बना, अरु जाइके भाग के माथ लगा री !
हाथ की फीकी पड़ी मेंहदी, अब पाँव महावर छूट गया री !
काहे वियोग मिला अइसा, मछरी जइसे तड़पे है जिया री !
आए पिया नहि, बीते कई दिन, जोहत बाट खड़ी दुखियारी .

मंगलवार, 29 जून 2010

हाइकु

(1)
घना जंगल
न पौधे न दरख्त
आदमी पस्त

(२)
बढ़ता हाट
बिकने लगे रिश्ते
कैसे जज़्बात ?

(३)
दूर किनारा
घिरने लगी साँझ
नाविक क्रान्त

(४)
ओष्ठ निःशब्द
मुखर हुआ मौन
बढ़ा घनत्व

(५)
पूर्ण ऐश्वर्य
निरंकुश इन्द्रियाँ
कैसे ये संत?

शुक्रवार, 25 जून 2010

आह पे क्यों इतना हंगामा हुआ है

जाने गुलशन की फ़िज़ा को क्या हुआ है
आज तो हर फूल ही सहमा हुआ है

अब दरीचों से महज हम देखते हैं
चाँदनी में भींगना सपना हुआ है

आसमाँ में उड़ रहे उजले कबूतर

रास्तों पे सुर्ख़ रंग बिखरा हुआ है

रात आँचल में छुपा लेती है वर्ना
धुल न पाता, स्याह जो चेहरा हुआ है


ज़ख्म है तो दर्द होना लाज़मी है
आह पे क्यों इतना हंगामा हुआ है

गुरुवार, 27 मई 2010

सेहरा के ज़िस्म पर कोई दरिया उतर गया

सेहरा के ज़िस्म पर कोई दरिया उतर गया
अच्छा हुआ वो आँख मेरी नम जो कर गया
मौजें बहा के ले गईं कदमों के सब निशां
बादल बरस के फिर से हरा घाव कर गया

रिश्ता मिरा सराब से गहरा बहुत रहा    (सराब= मरीचिका)
वो भी चला था साथ मेरे मैं जिधर गया

मैंने तो कोई आइना तोड़ा नहीं कभी
फिर भी जाने अक़्स मेरा क्यूँ बिखर गया
आदत ही तीरगी की मुझे ऐसी पड़ गई     (तीरगी = अँधेरा)
थोड़ी सी रौशनी से मेरा दिल सिहर गया

बस मोम का लिबास था ज़ख्मों के ज़िस्म पर
हमदर्द इक नज़र जो पड़ी तन उघर गया

मंगलवार, 25 मई 2010

जंगल की हवा अब तो शहरों में भी बहती है

हर रोज ही इन गलियों से चीख उभरती है
जंगल की हवा अब तो शहरों में भी बहती  है


क़िस्मत की लकीरें भी मिट जायँ गरीबी में
भूनी हुई मछली भी, हाथों से फिसलती है


वो रोटियाँ बुनता है बदन भूख का ढ़कने को
शब-सर्द जुलाहे की, घुटनों में गुजरती है

अब चाँद सितारे भी
हैं हद से नहीं बाहर
दरम्याने-दिले-इन्सां दूरी नहीं घटती है

तुझमें जो है उफान, सबब, तेरा उतरना है
समतल पे नदी आकर चुपचाप ही बहती है

टोपी में लगा लो चाहे जितनी कलँगियाँ तुम
पर बाँग से मुर्गे की कभी पौ नहीं फटती है


(शब-सर्द = ठंडी रात )

गुरुवार, 13 मई 2010

आँचल माँ का


हर शै थी अन्जान यहाँ

मैं सिर्फ जानता आँचल माँ का
उन नन्ही आँखों की धरती,
आसमान था आँचल माँ का

हर पीड़ा, दुःख, डर मिट जाता
उस वितान के नीचे आकर
बचपन के माथे पर उभरा
हर गुमान था आँचल माँ का

तरुणाई की आँखों में जब
सपनों के अंकुर फूटे
उनके पोषण हेतु हवा, जल
और उजास था आँचल माँ का

हास-व्यथा, उल्लास-हताशा
एक साथ थे यौवन पथ पर
स्नेहिल हाथों से, मन का
हर भाव थामता आँचल माँ का

जग के रीति-रिवाजों में
परिपक्व हुआ मैं किन्तु अभी भी
फाँस कोई चुभती जब दिल में
दर्द ढूँढता आँचल माँ का

कैसे माँ की छवि, ममता, -
व्यक्तित्व सभी का गान करूँ
मेरे सारे शब्दों में भी
नहीं समाता आँचल माँ का

रविवार, 9 मई 2010

आँच गर ज्यादा करोगे रोटियाँ जल जाएँगी


मत हवा दो, अध-बुझी चिंगारियाँ जल जाएँगी
आग जो भड़की दिलों में, पीढ़ियाँ जल जाएँगी

ख़ुद-परस्ती की शमाँ से यूँ घर रोशन करो
बेगुनाहों की बहुत सी बस्तियाँ जल जाएँगी

यूँ फेंको प्यार के दरिया में नफरत की मशाल !
लग गई जो आग सारी कश्तियाँ जल जाएँगी

बैठ ऊँची कुर्सियों पर आग में डालो न घी
गर लपट ऊँची उठी तो कुर्सियाँ जल जाएँगी

सब्र से सेंको, चिता की आग के सौदागरों !
आँच गर ज्यादा करोगे रोटियाँ जल जाएँगी

मंगलवार, 4 मई 2010

ये चाँद जो उजला दिखता है

ये चाँद जो उजला दिखता है
बस तेरी नज़र का धोखा है

है सारी उमर बहता रहता
आँखों में कहीं इक दरिया है

पहचान इन्हें कैसे होगी
हर आँख चढ़ा इक चश्मा है

तू देख के दाना चुगना रे !
वो जाल बिछाए बैठा है

हर रात बिताता आँखों में
यह शहर भी मुझ सा तनहा है

जीने की उसे है चाह बहुत
मरने की दुआ जो करता है

इसका भी तो हक़ है पलकों पर
यह अश्क़ भी मेरा अपना है

मत शोर मचा, जग जाएगा
अब ख़्वाब बहुत ही मँहगा है

जब इश्क़ चढ़े फिर ना उतरे
यह रंग बहुत ही गहरा है

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

एक लमहा ज़िन्दगी की वो कहानी कह गया

एक लमहा ज़िन्दगी की वो कहानी कह गया
दूर तक बस राह में आलम ख़ला का रह गया

जो चला था खूँ जिगर से उमड़ के तूफ़ान सा
आते आते आँख तक वो सिर्फ पानी रह गया

हो गयीं तनहा मेरी पलकें भी अब तो एकदम
हमनफ़स इक ख्वाब ही था, आज लेकिन वह गया
ढूँढती है राह सूनी, चाँद की परछाईयाँ
आज भी आया नहीं वो, किस हवा सँग बह गया

अबके सावन में पड़ेंगे आग के शोले बहुत
जाते जाते इक परिंदा गुलसितां से कह गया


ज़िन्दगी यूँ भी चली, यूँ भी चलेगी ज़िन्दगी
जो बढ़ा वो पार निकला, जो थमा वह रह गया

रविवार, 24 जनवरी 2010

प्रीति के दोहे

प्रीति हिया ऐसी जगी, भागा भेद-विवेक
हर अमूर्त औ' मूर्त में,
रुप दृष्टिगत एक

रामायण, गीता तुम्ही, तुम ही वेद, पुराण
पढूँ, गुनूँ आठो पहर, तुममें ही निर्वाण


नेह-सुधा की अब्धि तुम, सुख-माणिक भण्डार
डूब डूब चुनता रहूँ, भरूँ हृदय आगार


सुबह, तुम्हारी ही हँसी, दुपहर, मधुरी बैन
साँझ तुम्हारी प्रीति है, आलिंगन है रैन

पुष्प, तुम्हारी स्निग्धता, आभा पाए भोर
वाणी ले सरगम बने, पाए प्रीत चकोर

बुधवार, 6 जनवरी 2010

प्रणय राग

मनुष्य न तो केवल प्राण है और न ही केवल शरीर, अपितु दोनों का संगम है. प्राण और शरीर दोनों ही मिलकर अस्तित्व और चेतना का निर्माण करते हैं. इसीलिए दोनों का आकर्षण और भोग सदा से ही विद्यमान रहा है. प्रेम में भी दोनों की ही भागीदारी होती है और दोनों जुड़कर ही मिलन को पूर्णता देते हैं. महाकवि जयदेव ने "गीत गोविन्द" में राधा और कृष्ण के मिलन के अन्तरंग पलों को बहुत ही सुन्दरता से उकेरा है.

मैंने इस कविता में प्रेमी-युगल के प्राण-गात के पूर्ण विलय के क्षणों में उभरे भावों और प्रक्रियाओं को शब्द बद्ध करने का प्रयास किया है.


पल था कोई चेतनता का
या वह सुन्दर एक सपन
अर्द्ध रात्रि की नीरवता में
दो प्राणों का महामिलन

पुष्प वाटिका के प्रांगण में
पत्रों पुष्पों का आसन
तुम रति की प्रतिमा बन बैठी
मैं प्रेमी, रत-आराधन

भू पर फैली शुभ्र ज्योत्सना
तारक गण से भरा गगन
मंद पवन के मलयज झोंके
सहलाते सुरभित कुंतल

चक्षु तुम्हारे, नेह सरोवर
लहराते मद्धम मद्धम
अंजलि भर भर नयन लगाता
चिर-निमग्नता चाहे मन

स्पर्श मिला जब अंगुलियों का
हुआ विकंपित सारा तन
नेह-वृष्टि नयनो की पाकर
उठी एक मादक सिहरन

पूर्व क्षितिज की प्रात अरुणिमा
फैल गई कोमल मुख पर
फड़क उठीं रक्तिम पंखुड़ियाँ
नेह निमंत्रण था अनुपम

मचल उठा अंतह का चातक
देख अधर पर स्वाती-जल
जीवन भर की प्यास बुझा लूँ
पी लूँ पल में अमिय सकल

तत्क्षण झुका सुमन पटलों पर
सम्मोहित हो भ्रमर-अधर
करने लगा सिक्त प्राणों को
मधुरस का मादक निर्झर

लिपटी देह बेल सी पल में
कंठ-करों का अवगुंथन
मुँदने लगे चक्षु द्वय मद से
मधुर मदिर वह आलिंगन

बाहर मधु, अन्दर बड़वानल
पल पल होते तप्त अधर
बढ़ने लगा वेग धमनी में
उत्तेजित अति हुआ रुधर

घुलने लगी स्वाँस स्वाँसों में
सघन ताप भर निज अंतर
गीष्म काल का उष्ण समीरण
ज्यों बहता है तृतीय प्रहर

स्पंदन दो हृदयों का बढ़ता
हर क्षण बढ़ता सम्मोहन
आतुरता के तुंग शिखर पर
विलग गात से हुए वसन

उठा ज्वार सा अंतह में ज्यों
झुका चन्द्र हो वारिधि पर
कंचन गात दृष्टिगत केवल
चहुँ-दिश ढँका अवनि अम्बर

ज्योति पुंज सी फूट रही थी
अंग अंग माणिक झिलमिल
या सत निर्झर बहते मधु के
सम्मोहक मादक उर्मिल

या फिर उतरा देवलोक था
कण कण में आनंद नवल
हर पग खिले सुमन बहु, सुरभित
तन मन करते उच्छृंखल

निर्बाध बढ़ा, अति लालायित
मैं पूर्ण प्राप्ति के पथ पर
ज्यों भादों का मेघ चला हो
बाहों में चपला भर कर

श्रृंग गर्त में विचरण करता
कुच-कलशों से मधु पीकर
उन्मत्त हुआ मन चाह उठा
वहीं विचरना जीवन भर

लगे डूबने सुधा सरित में
हृदय-गात दो बंधन-रत
लिखने लगे प्रणय गाथा फिर
तन, मन दोनों के अविरत

कभी तनी तुम चित्र पटल सी
चित्रकार मैं अति तन्मय
पोर पोर पर छवि उकेरता
प्रेम राग मधु सुधा प्रणय

कभी हुई वीणा सी झंकृत
पाकर मधुरिम नेह-छुवन
फूटा जीवन राग मधुरतम
गुंजित हुआ सकल उपवन

कभी हुई मुखरित बंशी सी
रखा तुम्हें जब अधरों पर
कभी कूक कोयल की फूटी
धड़के प्राण गात जुड़कर

खिंचा हुआ था चाप सदृश तन
ज्यों प्रत्यंचा चढ़ा प्रबल
गूँजे गुरु टंकार चतुर्दिक
शर संधान करूँ जिस पल

अग्नि प्रज्ज्वलित थी यौवन की
ज्यों जलता हो खाण्डव वन
लपट पुंज उठते प्रदग्ध अति
बूँद बूँद पिघलाते तन

या प्रतप्त था हवन कुण्ड ज्यों
आम्र शाख सा जलता तन
लपटें पकड़ रही लपटों को
आतुर हो होकर हर क्षण

नीचे वसुधा ऊपर अम्बर
झूला बना पुष्प उपवन
पेंग बढ़ा संपृक्त प्राण-द्वय
पल पल छूते सप्त गगन

वाजि बना वह काल खण्ड, हम
करते द्रुत अश्वारोहण
बढ़ रहे लाँघते मद-सरिता,
मधु-गिरि औ' मादक-कानन

नाद युक्त उच्छ्वास तप्त हो
द्रुत गति से बहता अविरल
तन आच्छादित स्वेद कणों से
ज्यों बिखरा हो वर्षा-जल

पहुँचे हम उत्तंग शिखर पर
जहाँ डोलता सुधा जलद
गूँज उठा घननाद प्रबलतम
लगा बरसने लरज लरज

सिक्त हुआ प्राणों का कण कण
अंतह अति सुरभित, मधुमय
तरल हुए हिम खण्ड पिघलकर
हुआ परस्पर पूर्ण विलय

थमा ज्वार, थी शांति चतुर्दिक
लहराता तन मन उपवन
आधिपत्य औ पूर्ण समर्पण-
एक साथ, था महामिलन

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

पल भर को तुम मुड़कर तकना

अंतिम पल हैं; जाते जाते
पल भर को तुम मुड़कर तकना

आँसू के कुछ कतरे तन पर
ओस सरीखे पड़े हुए हैं
फूल तुम्हारे मुस्कानों के
अंग हमारे जड़े हुए हैं
सपनों के नन्हे नन्हे से
कितने पौधे खड़े हुए हैं
कभी किसी एकाकी पल में
जिनको बोया मेरे अँगना
पल भर को तुम मुड़कर तकना

कभी मिलन में हुए उल्लसित
प्रियतम को बाहों में भरकर
कभी विरह में रोया तुमने
मेरे काँधों पर सिर रखकर
खोने पाने औ सुख दुःख का
रहा सदा साक्षी मैं हर पल
आज मेरी अंतिम बेला में
जाते तुम, पल एक ठिठकना
पल भर को तुम मुड़कर तकना

नव वर्ष तुम्हारा हो मंगलमय
मैं अतीत हो जाऊँगा
कालचक्र के महाजलधि के
अंतह में सो जाऊँगा
कभी किसी अलसाए पल में
याद तुम्हें जो आऊँगा
नाम मेरा अधरों पर अपने
मुसकाकर हौले से धरना
पल भर को तुम मुड़कर तकना

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

अहर्निश

मैं जानता हूँ
कुछ फर्क नहीं पड़ता
मेरे चीखने से, चिल्लाने से,
जीवन के शतरंज पर
शब्दों की गोटियाँ चराने से।
कुछ भी तो फर्क नहीं पड़ता,
जलती क्षुधाओं को
बेबस आँसुओं को
कलपते तन-मन को
शब्दों की चाशनी में पकाने से।

मैं यह भी जानता हूँ कि
जो उबलता है अन्दर
तप्त लावे की तरह,
सतह पर आते ही
हो जाता है शीत युक्त...
जम जाता है हिम खण्डों सा,
स्पर्श मात्र से ही
ज़माने की ठंडी हवाओं के।

फिर भी
उस उबाल को
उस उफान को
रोकता नहीं
क्योंकि
कम से कम
इतना अहसास तो होता है कि
कड़ाह के नीचे आंच है
और शायद इतनी उम्मीद कि
कभी तो, कुछ तो पिघलेगा।
पल भर के लिये ही सही
मन की सतह क्षैतिज तो हो जाती है।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

दोहे

जो माटी से तन बना, महता कम ना होत
बिन दीया कैसे भला, जलती कोई जोत

पोथी सब कंठस्थ, पर, खुली न मन की गाँठ
नलिका* पर लटका हुआ, तोता करता पाठ

मिलन विरह दोनों सुखद, प्रेम करे यदि वास
कस्तूरी सा, हृदय में, फैले मधुर सुवास

सुलगे भुस तो देर तक, धुँआ भरे आकास
तिनका जलता एक पल, देता अग्नि, उजास

मसिहा बनने की रही, सदा मनुज की चाह
पर सबसे बनती नहीं, पानी ऊपर राह

रात दिवस लड़ता, मगर, पार कभी ना पाय
चक्रव्यूह गढ़ आप ही, ढूँढे स्वयं उपाय

आधिपत्य, प्रतिदान, गुण, होते नहि आधार
इसीलिए सबसे विलग, होता माँ का प्यार

मृत्यु भले ही जगत में, सबका अंतिम सत्य
मरण नहीं जीवन बिना , जीवन पहला सत्य

*नलिका पर.....----- (कदाचित कुछ लोगों को यह सन्दर्भ न ज्ञात हो) पहले के ज़माने में तोता पकड़ने के लिए नलिका लगाते थे। जब तोता उस पर बैठता था तो नलिका घूम जाती थी और तोता उल्टा लटक जाता था. वह गिर न पड़े इस डर से नलिका को और जोर से पकड़ लेता था. और बहेलिया आकर उसे पकड़ लेता था. एक बार एक साधु ने एक तोता पाला और उसे पकडे जाने से बचने का उपाय बताया -
१। नलिका पर कभी मत बैठना
२। अगर बैठ भी जाना तो नलिका जैसे ही घूमे उसे छोड़कर उड़ जाना।
तोते ने रट तो लिया लेकिन समझ न सका और एक दिन नलिका पर जाकर बैठ गया। नलिका घूमी और वह उलटा लटक गया. नलिका को जोर से पकड़कर पाठ दुहराने लगा -- १. नलिका पर कभी मत बैठना २. अगर बैठ भी जाना तो नलिका जैसे ही घूमे उसे छोड़कर उड़ जाना.

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

इरादतन मैंने किया

इरादतन मैंने किया; इल्ज़ाम लेने दो
मेरे गुनाहों को मेरा अब नाम लेने दो

चलना अगर आता उफ़क भी पार कर लेता
बैसाखियों को धड़कने तो थाम लेने दो

झुक कर जरा सिर से हटा दो सख्त मिट्टी को
इस बीज को भी इक नया आयाम लेने दो

दुश्वार ना हो जाय, चलना दोपहर में कल
इन गेसुओं से एक कतरा शाम लेने दो

साहिल मिलेगा या भँवर, है बात किस्मत की
बस डूबने वाले को तिनका थाम लेने दो

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

दिल लगाने से हम तो डरते हैं

दिल लगाने से हम तो डरते हैं ।
ग़म उठाने से हम तो डरते हैं ।

कुछ भरम दिल के टूट ना जाएँ ,
आज़माने से हम तो डरते हैं ।

कब किसी बात का हो अफ़साना,
इस ज़माने से हम तो डरते हैं ।

फिर रुला दें तुझे न वे नग्में,
गुनगुनाने से हम तो डरते हैं ।

हो न जाओ सनम कहीं रुस्वा,
पास आने से हम तो डरते हैं ।

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

मेरे जज़्बात तुम बिन कम न होते

मेरे जज़्बात तुम बिन कम न होते।
ख़ुशी से रूबरू पर हम न होते।

रुतें आतीं तेरे बिन भी जहां में,
बहारों के मगर मौसम न होते।

कभी ना रंगे-उल्फ़त देख पाता,
अगर इस दिल के तुम हमदम न होते।

ख़लाओं में भटकती ज़ीस्त तुम बिन,
किसी मंज़िल के राही हम न होते।

शुआ-ए-रुख़ से अब दिन रात रोशन,
तेरे बिन ये हसीं आलम न होते।

मेरी ही रूह का हो एक हिस्सा,
न मिलते जो; मुक़म्मल हम न होते।

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

मेरा गुलसितां था नया नया

थी कली अभी तो चटक रही, अभी फूल था बस अधखिला
क्यूँ ख़बर खिज़ाओं को मिल गई, मेरा गुलसितां था नया नया

जो न मंज़िलें हों नसीब में, मुझको न कोई मलाल है
बस ख़त्म हो न कभी मेरे कदमो तले है जो रास्ता

उस शाम पाकड़ के तले तुमने गले जो लगाया था
इन सर्दियों में हरारतें वही ओढ़ के मैं तो चल रहा

हर बार देते हैं ज़ख्म वे, हर बार ही हम सोचते
जो गई वो बात बिसार दे, जो भी हो गया वह हो गया

न ये आख़िरी है पड़ाव ही, न ही आख़िरी ये मुकाम है
उस पार जाकर रूह बस पहनेगी इक कपड़ा नया

बुधवार, 23 सितंबर 2009

नम हैं आँखें और हमारे दिल जले हुए

नम हैं आँखें और हमारे दिल जले हुए
चल रहे हम फिर भी लेकिन लब सिले हुए

आईने को देख रोया जार जार मैं
मुद्दतें थीं हो चुकीं ख़ुद से मिले हुए

आस उड़ने की लिए, बस मैं खड़ा रहा
आसमाँ तो था खुला, "पर" थे सिले हुए

कबसे आई है नहीं तेरी हँसी यहाँ
एक अर्सा हो गया अब गुल खिले हुए

ये हमारी बेवफाई का सिला नहीं
चल गयी जो चाल किस्मत, फासले हुए

खुशबुएँ हाथो से उनके अब भी आ रहीं
क़त्ले गुल की साजिशों में थे मिले हुए

रविवार, 20 सितंबर 2009

जब पास मेरे प्रिय तुम होती हो

कितना अच्छा होता है जब
पास मेरे प्रिय तुम होती हो

त्राण सदृश, अस्तित्व तुम्हारा, मुझको ढँक लेता है
दुःख, चिंता के हर प्रवेग को बाधित कर देता है
प्राणों को कर प्रणय सिन्धु, सुख की तरिणी खेता है

मेरे हिय की हर पीड़ा का
पल में क्षय तुम कर देती हो
कितना अच्छा होता है जब
पास मेरे प्रिय तुम होती हो

नेह तुम्हारे नयनों से मृदु निर्झर सा झरता है
हृदय-धरा के कण कण को यह प्रेम सिक्त करता है
धुल जाती धारों से रस के सारी उन्मनता है
उर-धरणी पर निर्मल शीतल
सुख-सरिता सी तुम बहती हो
कितना अच्छा होता है जब
पास मेरे प्रिय तुम होती हो

सुरभित मंद झकोरों सा है अनिल स्वाँस का बहता
मेरी साँसों में भरता है मलयज की शीतलता
लुप्त म्लानता पल में करती है इसकी मादकता

मन मेरा उपवन बन जाता
तुम ऋतुराज बनी होती हो
कितना अच्छा होता है जब
पास मेरे प्रिय तुम होती हो

घेरे में कोमल बाहों के , मन सुध-बुध खोता है
मंजुल स्वप्नों से आच्छादित प्रणय जगत होता है
क्लेश व्यग्रता कब कोई भी हर्षित मन ढ़ोता है

निज प्राणों को मेरे प्राणों
के आँगन में बो देती हो
कितना अच्छा होता है जब
पास मेरे प्रिय तुम होती हो

अंतर्मन से उठकर, भावों के अक्षर आते हैं
मुखमंडल के स्निग्ध पृष्ठ पर, जुड़ते वे जाते हैं
प्रेम गीत, अधरों पर शब्दों के, कुछ लहराते हैं

मैं तन्मय पाठक होता हूँ
तुम जीवन-कविता होती हो
कितना अच्छा होता है जब
पास मेरे प्रिय तुम होती हो

सोमवार, 14 सितंबर 2009

जुगनुओं के ताप से कोई फसल पकती नहीं


आह हाथों की लकीरों को बदल सकती नहीं
जुगनुओं के ताप से कोई फसल पकती नहीं

यूँ कभी कुछ देर मन बहला भले देती है यह
नाव कागज़ की नदी तो पार कर सकती नहीं

कालिखें कितनी पुतेंगी और अब इतिहास पर
बह रही खूँ की नदी जो, क्यों कभी रुकती नहीं

ज़ब्त करना सीख लो ग़म, क्योंकि चीखों से कभी
आसमाँ झुकता नहीं है, ये जमीं रुकती नहीं

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

आगे कहानी और है

चाँद, परियों से जुदा, किस्सा-बयानी और है
इस में राजा है न रानी, ये कहानी और है

नींद में चलते हुए ठोकर लगी, जाना तभी
ख्वाब तो कुछ और थे, पर जिंदगानी और है

आईने पर, लौटकर बाज़ार से, डाली नज़र
यूँ लगा यह तो नहीं सूरत पुरानी, और है

धड़कने, आहें, कसक, आँसू , तराने सब वही
पर सभी आशिक कहें- "मेरी कहानी और है"

लग रहा ये आ रहीं छूकर तेरे रुख़सार को
आज इन मादक हवाओं की रवानी और है

हो गयीं आँखें तुम्हारी नम अभी, ऐ हमनफ़स !
सिर्फ यह शुरुआत थी आगे कहानी और है

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

अंतहीन संघर्ष

एक अजगर
एक प्रेत
और एक गिद्ध

तीनो ही
जन्म लेते हैं
आदमी के साथ ही
आदमी के भीतर ही

अजगर,
जो भी पाता है
खा जाता है
उम्र भर खाता रहता है
परन्तु
सदा ही भूखा रहता है

प्रेत,
भिन्न भिन्न आकृतियाँ गढ़ता है
सारी उम्र डराता है
रचाता है अनेकों ढोंग
इधर उधर भगाता है

गिद्ध,
बार बार गडाता है
अपनी नुकीली चोंच
शरीर में
सारी उम्र पीड़ा देता है

आदमी
बार बार उठता है
अपने पौरुष को टटोलता है
कमर कसता है
लडता है
किंतु

कभी भी पार नहीं पाता है .

सोमवार, 31 अगस्त 2009

अभिसार

वह पूनम की रजनी थी
कुछ उजली सी, कुछ नम सी
तुम चन्दा सी उतरी थी
फिर बरसी थी सावन सी

वह दिवस आज भी पलता
है हर पल उर में मेरे
जब मयूख बन छिन्न किए
जीवन के सघन अँधेरे

अब हर पल सिंचित करतीं
उपवन को मृदुल फुहारें
सावन रहता नभ मेरे
झरतीं हैं रस की धारें

अब चाँद उतरकर नभ से
मेरे आँगन सोता है
अब मेघ नित्य ही द्वारे
नव इन्द्रधनुष बोता है

सुख-सुमन विविध रंगों के
छिटकाती हँसी तुम्हारी
जीवन-आँगन अब मेरा
रमणीय एक फुलवारी

कातर नयनो से तकते
जो पलकों के घेरे से
तुम उन्हें खींच ले आती
रख देती सम्मुख मेरे

मृदु स्पर्श तुम्हारा पाकर
धर मूर्त रुप आ जाते
सपने सारे ही मेरे
अब प्राण गात हैं पाते

प्रथम किरण की आभा सी
उर को रहती हो घेरे
शीतल पावन गंगा सी
हिय में बहती हो मेरे

मुख ज्योति ज्योत्सना जैसी
मुस्कान मोह के डेरे
साँसें चलती हैं जैसे
मलयज के मंद झँकोरे

घन लेकर कुंतल से ही
घनघोर बरसता सावन
वाणी की वीणा से ही
सुर को मिलता है जीवन

सुनते जब नयन हमारे
नयनों की मधुरी वानी
विस्मृत जग होता पल में
नव लोक करे अगवानी

कर-हृदय पकड़ तुम लेती
ले जाती हो उस पथ पर
मंजुल सपने सब पलते-
थे, जहाँ आस के तरु पर

वे दिवस सुनहले कितने
अलसाए तरुणाई के
दबे पाँव तुम आ जाती
चुपके से अँगनाई में

मृदु करतल से ढँक लेती
थी बंद दृगों को मेरे
उच्छ्वास तुम्हारा निर्मित
करता संदल के घेरे

सोमवार, 24 अगस्त 2009

राँझे फना होते हैं अब भी प्यार में

आजमाना था कि कितना जोर है पतवार में ।
नाव हमने डाल दी, चढ़ती नदी की धार में।

तुम बड़े नादान हो जो रूह लेकर आ गए,
सिर्फ कीमत जिस्म की है अब यहाँ बाज़ार में।

पीटते हो ढोल जाने किस तरक्की का यहाँ,
भूख, भय, बीमारियाँ हैं ज्यों की त्यों संसार में।

बाप के हालात से अनजान बच्चों को तो बस,
आस रहती है नए कपड़ों की हर त्यौहार में।

मानता हूँ मैं कि ये दौरे जमाना और है,
पर कई राँझे फना होते हैं अब भी प्यार में।

बुधवार, 19 अगस्त 2009

उस झील के तट पे, कोई पत्थर नहीं है

गम नहीं जो राह में मेरी, गुलों का घर नहीं है ।
बस्तियाँ काँटों की हैं, और हाथ में नश्तर नहीं है ।

है अजब ही खेल ऐ मौला ! तुम्हारा इस जहां में,
डूबता कोई, किसी को बूँद तक मयस्सर नहीं है ।

ज़िन्दगी! तू क्यों भला फिर से उन्हें दुहरा रही है
पास मेरे जिन सवालों का कोई उत्तर नहीं है ।

इश्क औ' मरजाद दोनों ही, सनम! कैसे निभेगी ?
है हथेली में तेरे पर नाम माथे पर नहीं है

हो सकेगी गुफ्तगू भी अब भला कैसे हमारी
अब वहाँ, उस झील के तट पे, कोई पत्थर नहीं है ।

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

दोहे -प्रेम और श्रृंगार के


अन्दर मेरे तुम प्रिये , बाहर तुम ही होय
जित देखूँ तित तू दिखे , और न दूजा कोय

मैं तो, अब मैं ना रहा, तुम-मय भीतर वाह्य
तेरा ही मन प्रान प्रिये , जब से कन्ठ लगाय

अंध कूप में था पड़ा, लिये सघन अँधियार
अमिट उजाला छा गया, झाँके वे इक बार

तम ही तम फैला रहा, अवनि और आकाश
जग उँजियारा हो गया , मिलिया प्रेम-प्रकाश

तुमसे ही तो हर ख़ुशी , तुमसे ही सब नेह
जब चितवत हो तुम मुझे , बरसत मधु का मेह

पास सदा ही वे रहें , चाहे मन बेचैन
उनको ही देखा करुँ , आठ पहर दिन रैन

बैठ अटारी दोपहर , गोरी खोले केश
सोचे यह मन बाँवरा , साँझ भई इह देश

गोरी भींगे केश जो , फेरे है छिटकाय
टपके रिमझिम बूँद, यों , बरसत घन इतराय

अलकों में है घन बसा , साँसन मधुर सुवास
चितवन में अनुराग है , अधरन में मधु मास

चंदा चमके व्योम पर , चंदा अँगना सोय
दुइ दुइ चंदा देख के , हृदय मयूरा होय

देखन जब उनको लगा , और न देखन जाय
देख देख छवि सुमुखि की, प्यासे नैन अघाय

प्रिय की अति चंचल हँसी, कल कल सरित प्रवाह
हिय को आह्लादित करे, मिटे सकल दुःख दाह

बातें जब वो बोलती , झरन लगे हैं फूल
रोपे मन भर अंजुली , अर्घ्य देय हिय कूल

गोरी बैठी आँगना , देखन में सकुचाय
देख अँगूठी बीच छवि, मन ही मन मुसकाय

मन मेरा यह बाँवरा, वश में मोरे नाय
बैठ रहा उस ठौर, तुम ,जहाँ लिए लिपटाय

लिपटी हो तुम बेल सी , ऊँगली डोलत केश
चंचल लोचन राग का, देते हैं सन्देश

झरते हो तुम इस तरह , जैसे झरती ओस
साँसे घुलती साँस में , खोता जाता होश

शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

अभीष्ट

तुम्हारे
घन-केश की
शीतल छाँव को ही
मान लिया था
मैंने अपना अभीष्ट,
जब तक
नहीं भींगा था
तुम्हारे हृदयाकाश से झरते
शीतल फुहारों में ।

तुम्हारी
सीप सी सुन्दर,
झील जैसी गहरी
पनीली आँखों में ही
डूब जाने का स्वप्न देखा था,
जब तक
अनजान था
तुम्हारे अंतह में उमड़ते
अनंत
अथाह
स्नेह सिन्धु से ।

तुम्हारी
सन्दल-देह की सुगंध ही
सबसे अधिक
मादक लगी थी मुझे,
जब तक
किया नहीं था पान
तुम्हारे अन्दर से फूटते
अमिय रसधार का।

किन्तु ,
अब
मैं अपने अंतह में
जीता हूँ
हर पल
तुम्हारा अंकुरण
तुम्हारा विस्तार
और अपनी पूर्णता
एक साथ।

बुधवार, 29 जुलाई 2009

बाँध लो मुझे

बाँध लो मुझे,
नहीं चाहिए छुटकारा।
खींच लो मुझे ,
अपने अंदर,
अतल गहराइयों में,
कि चाह कर भी न उबर सकूँ।

छू लो मुझे
इस तरह
कि पिघल जाए मेरा अस्तित्व
किसी तरल जैसा,
और बूँद बूँद
समाहित हो जाए तुममे ही।
उड़ जाएँ
भाप बनकर,
मेरी सारी दूसरी इच्छाएँ ।

ढँक लो मुझे
इस तरह
कि मेरा हर सत्-असत,
मेरा हर ज्ञान-अज्ञान,
मेरा हर पाप-पुण्य ,
मेरी भौतिकता और आध्यात्मिकता,
सब एकाकार हो जाएँ ।

नही करता
मैं मोक्ष की कामना,
मैं चाहता हूँ
भटकते रहना
अनंतकाल तक
इसी धरती पर
तुम्हारी सुगंध लिए
अपने अंतह में ।

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

एक नज़्म

मेरा प्यार तुम, मेरी जान तुम, तुम ही तो हो मेरी जिन्दगी।
मेरे हमनफस तेरे साए में, पलती है मेरी हर खुशी।

शब-ए-गम लिए था मैँ चल रहा सूने सफर में अब तलक,
तुम आ मिली सरे राह जो, छायी फिजाँ में रोशनी।

तेरे इश्क की परछाइयाँ, मेरे ज़ख्म-ए -दिल को सूकून दें,
तेरी जुल्फ की नम छाँव में, शामो सहर मेरे शबनमी !

मेरे दिल की सच्ची इबादतें, और रब की मुझ पे इनायतें,
मेरे ख्वाब में थी जो पल रही, मेरे बाजुओं में आ बसी !

तेरे रुख पे उनका जमाल हो, तेरी रूह उनसे निहाल हो,
यह रूप ही तेरा चाहिए , मुझे हर जनम में ऐ जिन्दगी !

बुधवार, 15 जुलाई 2009

तप्त तन मन की धरा को तुम सजल कर दो

छाकर मेरे उर व्योम पर तुम मेघ सा, बरसो ।
तप्त तन मन की धरा को तुम सजल कर दो ।

कंठ को मेरे, सुकोमल निज करों का हार दे दो ।
कर्ण को मेरे, प्रतीक्षित शब्द का उपहार दे दो ।
सुप्त मेरी धमनियों में रक्त का संचार कर दो ,
गर्म अपनी साँस, मेरी साँस में भर दो ।

बेल सी लिपटो, बदन की सख्त शाखों से ।
फैल कर ढँक लो मुझे निज नर्म पाखों से।
मेरे अंतह के मरुस्थल में अक्षय रसधार भर दो ,
मेरे अधरों पर, सरस अपने अधर धर दो ।

मेरी बाहों में बहो जैसे पहाड़ी नद कोई ,
उफनती अति वेग से है पत्थरों को तोड़ती ।
दग्ध तन की भूमि पर अमिय शीतल लेप कर दो,
नर्म जिह्वा की नमी से आज तुम हर रोम भर दो ।

तप्त तन मन की धरा को तुम सजल कर दो !

मंगलवार, 30 जून 2009

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

(डा.राम कुमार वर्मा के एक निबंध से प्रेरित; स्थायी पंक्ति उसी निबंध का शीर्षक है )

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

भाँति भाँति के दरवाजों से, मन में तू पग धरती है
तरह तरह के रूप बदलकर, अंतह में तू जलती है
बढ़ जाती जब तेरी ज्वाला, दग्ध हृदय का आँगन होता
ज्येष्ठ सुता तेरी -निंदा, तब झरती जिह्वा के बादल से !

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

देखूँ जब उन्मत्त नाचते कभी किसी मतवाले को
सात सुरों में गाता देखूँ, हर्ष भरे जब मस्ताने को
कुंठा मेरी, पथ प्रशस्त आने का तेरे कर देती
फुँफकारें तब तेरी उठती हैं मेरे मन कानन से !

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

जब जब देखूँ शान्ति, सुयस, उत्थान किसी के जीवन में
जम जाती तू अडिग शैल सी आकर मन के आँगन में
अहम् हमारा चढ़ जाता है, जाकर तुंग श्रृंग पर तेरे
व्यंग,कटाक्ष, निंदा- अस्त्रों को बरसाता पूरे मन से !

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

मनुज हर्ष ही तो केवल है, स्रोत नहीं तेरे अंकुर का
खग कलरव, नद का कलकल, अनुपम गान भ्रमर का
कभी कभी आधार बने हैं ये भी तेरे आने के
पर-"सुख औ सुन्दरता" देखूँ; अँगडाई लेती तू मन में !

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

गुरुवार, 25 जून 2009

तुम सदा ही गीत बनकर

तुम सदा ही गीत बनकर शब्द में ढलती रहो
तुम सदा ही प्रीत बनकर हृदय में पलती रहो
हर मरुस्थल राह का बहु पुष्प से भर जाएगा
संग मेरे, तुम सदा यदि बाँह धर चलती रहो

मैं अकेला ही सफर में आज तक चलता रहा
शाप कोई, प्राण में, बड़वाग्नि सा जलता रहा
हर तपन, हर पीर, सारी दग्धता मिट जाएगी
तुम मुझे जो, यूँ सदा ही, आँख में भरती रहो

फलित कोई पुण्य मेरे पूर्व जन्मो का हुआ
धार-शीतल गंग की बन प्राण को तुमने छुआ
स्वर्ग की होगी नहीं मुझको कभी भी कामना
तुम सदा सुख स्रोत बन हिय मध्य जो बहती रहो

शुक्रवार, 19 जून 2009

मेरा पूर्ण तुम हो

मेरे मस्तक पर उभरता मान हो तुम!
मेरे प्राणों का सतत उत्थान हो तुम !
मेरे होने का निरंतर भान देता,
चेतना में स्वाँस भरता, गर्व तुम हो !
प्रिये! मेरा दर्प तुम हो !

मेरे अंतह की सकल तुम कामना हो!
मेरे जीवन की अखंडित साधना हो!
ज्वार सी उठती हृदय के सिन्धु में जो,
भावनाओं का मेरे उन्मान तुम हो!
प्रिये ! मेरी माँग तुम हो!

मेरी साँसों में बसा मधुमास हो तुम !
मेरी आँखों में सजा उल्लास हो तुम !
इन्द्रधनुषी प्रणय की अँगनाइयों में,
विहँसती फिरती सदा; मन-मीत तुम हो !
प्रिये! मेरी प्रीत तुम हो !

मेरी वीणा की मधुर झंकार हो तुम !
मेरे बोलों का सुचिंतन सार हो तुम !
जल तरंगों सा उभरता प्राण से जो,
हृदय में है गूँजता; संगीत तुम हो !
प्रिये! मेरा गीत तुम हो !

मेरे जीवन को मिला; वह सत्य हो तुम !
मेरे अंतह में पला; शिव तत्व हो तुम !
मोहता जो नित नया आयाम लेकर,
आँख में भरता; वो सुन्दर रूप तुम हो !
प्रिये ! मेरा पूर्ण तुम हो !

बुधवार, 27 मई 2009

एक नज़्म

चारो तरफ ही अब मुझे महताब दिखता है
गैहान उनके नूर से आबाद दिखता है

कहर-ए-खिजाँ से सूखकर सहरा हुआ था जो
गुलशन ज़माने बाद वो, शादाब दिखता है

हूँ सामने मैं , अक्स पर उनका दिखाता है
इस आइने का भी अजब अंदाज़ दिखता है

जो है जमाने के लिए बस बूँद पानी की
पलकों तले मोती उन्हें नायाब दिखता है

ये जीस्त गुजरे, मौत आये, बस तेरे दर पे
दिन रात मुझको बस यही इक ख्वाब दिखता है

बादल सुभाग के

घिर आये हैं मेरे
बादल सुभाग के
साँवले सलोने से।

कन्ठ से उभरते हैं
सातों सुर एक साथ
झंकृत हो उठता है
अन्तः का तार तार।

अधरों पर खेलती
मोहक-अति चंचला
भरती है राह में
किरणे समुज्ज्वला।

सघन हो बरसते हैं
अमृत के बूँद बूँद
मन का पपीहा
अघाए बिन
पीता है रात दिन.

तुम बिन -भाग २ (नायिका उवाच)

बीत गए हैं कितने ही दिन, बिन देखे ही तुमको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

मेरे सारे बोल पिया रूठे बैठे हैं।
राग जिया के सारे साज समेटे सोये
कुम्हलाया है अधर बिना मुस्कान सजाये
नैना सजल निरंतर रात लपेटे रोये

कौन जतन कर, आओ जब तुम, ना जाने दूँ तुमको,
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

हर क्षण गुज़रे बन कंटक कदमो से मेरे
राह तुम्हारी तकती साजन साँझ-सवेरे
बिलखे मेहा, फूल झरे, सब पत्ते टूटे
तुम्हे पुकारे साजन, वाणी मेरी ऐसे

हिया बिलापे ऐसी बिरहन बना गए तुम मुझको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो !

मन ऐसे मचले की जैसे शिशु कोई हो
मुखडा तेरा ज्यों उसका हो एक खिलौना
बहलूँ मचलूँ जीलूँ जिसे हाथ में लेके
बोलो मेरे प्राण पिया बस तुम ही हो ना!

मुझे बिलखता छोड़ गए क्यों दया न आई तुमको !
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

बदरी तुम्हरे ठाँव न मेरी याद दिलाती?
पवन संदेसे लेके तुम्हरे द्वार न पहुंचा?
ऐसे कैसे सूरज ढलता सांझ द्वार पर !
चाँद न कहता बात मेरी कुछ झाँक झरोखा?

जल थल नभ सब बने उलाँकी दिए न दस्तक तुमको?
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

जैसे मोड़े मुँह बैठा मुस्कान अधर से
बोलो मेरे प्रीतम क्या तुम उन जैसे हो?
सुधि ना ली जो कितने प्रहर उदासी बीते
कहो पिया क्या तुम मुझको भूले बैठे हो?

जो ऐसी हो बात साँस से बंधन तोडूँ फिर तो
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

कल जो आओगे तुम साजन, सम्मुख मेरे
प्राण करेगा अगुवाई तेरी आँगन में
बिखरी जितनी, चुन चुन कर मैं अंग लगूँगी
थामे रखना अपने बाहों के बंधन में

प्रेम रीत में धीरज कैसा ! समझा देना मुझको,
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

क्या गिला करना भला

क्या गिला करना भला, देना दुहाई, कोसना क्या
हो चुका बेजान जो उसमे हरारत खोजना क्या

उम्र भर खून-ए-जिगर से, तू जिन्हें गढ़ता रहा था
उन बुतों का अक्स, जो सोचा किया था, वो बना क्या

है अगर दम तो सरे बाज़ार कुछ करतब दिखाओ
बंद कमरे में हमेशा चीखकर यूँ बोलना क्या

सिर्फ छूने में तुम्हारी उँगलियाँ तो काँपती हैं
सिसकियाँ भरने के खातिर, धाव को फिर खोलना क्या

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

रौद्र रुद्र

प्रशस्त शस्त शैल मध्य चिर विविक्त कन्दरा
शिला प्रगल्भ पुष्ट, व्याघ्र चर्म था बिछा हुआ
अनादि आदि देव थे समाधि में रमे हुए
सती वियोग का अथाह दाह प्राण में लिये

विरक्त, भक्त, सृष्टि के सभी क्रिया कलाप से
हरे त्रिलोक-ताप जो, जले विछोह ताप से
समाधि साध कर रहे विषाद की विवेचना
विदीर्ण जीर्ण प्राण की बनी सुत्राण साधना

ललाट चन्द्र मंद आज छिन्न भिन्न चन्द्रिका
कराल व्याल पीटते कपाल खोह भित्तिका
प्रदाह सिक्त डोलती मिटा तरंग गंग का
गणादि आदि घूमते अतेज, तेज भंग था

उधर विनाश में लगा असुर नरेश "तारका"
अदम्य शक्ति, तेज, ताप बाहु का अतुल्य था
मिला जो दिव्य-वर बना अमर्त्य, मर्त्य लोक मे
परास्त सुर हुये, दनुज अजेय था त्रिलोक मे

सदन विहीन दीन हीन देवता डरे डरे
निरीह यत्र तत्र क्लांत क्रांत हिय लिए फिरें
सुजान, ऋषिगणों, मनीषियों को घोर त्रास था
मचा हुआ था त्राहि त्राहि भूमि स्वर्ग काँपता

विफल हुए जतन सभी मिला न कुछ उपाय जो
सुरेश संग सुर चले चतुर्मुखार द्वार को
अधम असुर विनाश का गहन रहस्य पूछने
परम पिता विधान-विज्ञ ज्ञान-धाम ब्रह्म से

दुरास के विनाश का विहित रहस्य खोलते
बिरंचि ने कहा, व्यथित सुरेश, देव आदि से
किसी विधान श्रीनिधान शम्भु पाणिग्रह करें
प्रवीर रुद्र-वीर्य-जात दैत्य का दमन करे

परन्तु हैं महेश तो समाधि में रमे हुए
मिटा उमंग, देव सब विचार कर व्यथित हुए
करे समाधि भंग कौन रुद्र की त्रिलोक में
विषाद ग्रस्त त्रस्त देव मुख लगे विलोकने

प्रकट हुए तभी वहाँ, सुरेन्द्र के गुहारि पे
बसंत संग पंचबाण पुष्प चाप कर गहे
विनत सभी विबुध करें मनोज से ये याचना
समय विकट विपत्ति का अपूर्व आज आ पड़ा

असुर विनाश हेतु रुद्र ध्यान भंग जो करो
प्रगाढ़ दाह सिक्त सृष्टि का अतीव दुःख हरो
कहा विहँसि मनोज ने दुरूह यह सुकाज है
वरण समान काल के महेश से दुराव है

परन्तु श्रुति कहे सदा सुजान ज्ञानवान तो
सुकर्म के लिये मिटा दिए सुदेह प्राण को
सुकार्य के लिये मरूँ, नहीं मुझे विक्षोभ हो
हिताय सृष्टि, भंग हो समाधि, कामना करो

मदन चले बसंत, राग, मधु गणादि संग हो
प्रवेग काम का लिये, महेश ध्यान भंग को
प्रभाव में लिया समस्त सृष्टि के निकाय को
विराग,ज्ञान,ध्यान,धर्म,तप,चले अरण्य को

विनत विशाल वृक्ष चूमते उदार वल्लरी
सरित, तडाग भर उमंग सिन्धु ओर बह चलीं
समय बिसार, बन्ध त्याग व्योम, जल, मही चरी
सजीव चर अचर अतीव काम वश हुए सभी

मनुज, दनुज, पिशाच, भूत, व्याल, देव, तापसी
हुए सुजान मार वश विरक्त, सिद्ध, ऋषि, मुनी
सदा विलोकते जगत समस्त व्रह्म छवि लिये
विवेक, धर्म, धैर्य त्याग काम की शरण लिये

वियंग के गुहा मनोज दल सहित पहुँच गये
विलोक ध्यान मग्न भूतनाथ तेज डर गये
फिरे तो लोक लाज थी, रुके तो काल गाल था
मरण अवश्य ही मदन खड़ा हुआ विचारता

प्रकट किया सुरम्य दृश्य कंज मंजु वाटिका
सुभग तडाग, बहु लता, सुमन विविध, हरीतिमा
करें अपूर्व गान, नृत्य काम सिक्त अप्सरा
जतन किये मनोज कोटि किन्तु सब विफल रहा

अचल महेश जो दिखे अहम् जगा अनंग का
अजीत चाप पर चढा अचूक शर निषंग का
प्रखर प्रचंड पुष्प वाण दक्ष वक्ष जा लगा
प्रविष्ट प्राण में हुआ अभेद्य त्राण बेधता

वियंग देह कँपकँपा उठा अनंग वाण से
अनंत व्योम अंतरिक्ष भूमि स्वर्ग कांपते
उठा प्रलय सदृश निनाद नाद दिग्दिगंत से
सिहर उठा कराल काल भाल के तरंग से

चला अदम्य काम मिस्र हो लहू के संग जो
उठा प्रचंड ज्वार अब्धि पे झुका हो चन्द्र जो
अचंड शीश शेष का विकंप, कंप मेदिनी
सकल चराचरे अवाक देखते विकट घडी

फड़क फड़क भुजा उठी, तरंग अंग भर रहा
अनिल सुदीर्घ स्वांस का अनल प्रवाह कर रहा
धधक धधक उठी, प्रचंड तप्त रक्त वाहिनी
महेश के शरीर से बहे तडित प्रदाहिनी

डमक डमक बजा डमरु , त्रिशूल खनखना उठा
प्रचण्ड नाद भर गया, दिगंत कंपकपा उठा
लिपट भुजंग रुद्र कंठ जीभ लपलपा उठा
महा कराल काल ज्यों विक्षुब्ध तिलमिला उठा

प्रतप्त सुरनदी वृहद् जटाओं में उबल रही
पतंग सा प्रदीप्त चन्द्र, चन्द्रिका थी जल रही
महेश के त्रिनेत्र पट सवेग फडफडा उठे
रसाल पत्र में छुपे मनोज थरथरा उठे

अखण्ड रोष नीलकंठ का प्रवेग से चला
ज्वलल्ललाट मध्य दीप्त दिव्य चक्षुपट खुला
प्रकट हुयी प्रदाह सिक्त ज्यों प्रभा समुज्ज्वला
असंख्य ज्योति पुंज संग नाचती हो चंचला

पड़ी जो दृष्टि आम्र वृक्ष पर छुपे मनोज पे
हुए तुंरत भस्म कामदेव शिव प्रकोप से
जगे महेश देख देव नाद हर्ष से किये
जगत हिताय कामदेव देह त्याग कर दिये

अमर कथा अजर कथा कथा अजेय पात्र की
प्रकोप, दाह, कामना , महा परोपकार की
कथा विछोह , रोष , अम्बरीश के प्रताप की
हिताय सृष्टि , कामदेव के अपूर्व त्याग की
(इति )

गुरुवार, 12 मार्च 2009

ऐसा नहीं कि तेरी दुआ में असर नहीं

ऐसा नहीं कि तेरी दुआ में असर नहीं
शब ही हमारी ऐसी कि जिसकी सहर नहीं

जो बिन खिले ही फूल कभी शाख से गिरे
किस्मत यही थी उनकी, खिजा का कहर नहीं

मैं जानता था, राह में दरिया है आग का
बेबस बहुत चला था, मगर बेखबर नहीं

इल्जाम आज देता तुम्हे बेवफाई का
इजहार-ए-इश्क तुमने किया था मगर नहीं

मरता नहीं है कोई किसी के बिना कभी
इतना ही बस कि, दिल में खुशी का बसर नहीं

पहुँचेगा कारवाँ ये कभी तो मुकाम पे
ना खत्म हो कभी, कोई ऐसा सफ़र नहीं

बुधवार, 4 मार्च 2009

तुम बिन

बीत गए हैं कितने ही दिन, बिन देखे ही तुमको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

कितनी सांझ सुहानी बीती, वीरानी सी
कितने भोर मनोरम बीते, एकाकी में
कितने तारे नभ पर उतरे बिन आभा के
रजनी बीती जलती साँसों की भाथी में

सुरभि, चन्द्रिका, रिमझिम, लगते अनजाने से मुझको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

पग आप मुझे उस पुष्प कुटी तक ले जाते
जहाँ सुरभि फूलों में साँसों की भरती थी
झंकृत होती वीणा लेकर हँसी तुम्हारी
शुभ्र ज्योत्सना में आभा मुख की ढलती थी

सहमे वे पल खड़े देखते कातरता से मुझको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

लांघ देहरी पलकों की वे सकुचाती सी
बाते आतीं, राग सुधा हिय में बरसातीं
लाज रक्तिमा मल देती थी मुख पर तेरे
कम्पित ऊँगली की कोरे जब छू जातीं थीं

तुम बिन मरघट सा लगता सब आ जाओ प्रिय अब तो
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

यदि निश्चय करो तो

इस तिमिर के पार उज्ज्वल रवि-सदन है
रश्मियों का नृत्य, क्रीडा मधुरतम है
अनिल उष्मित है प्रवाहित चहुँ दिशा में
दृष्टि , पथ, उर में भरेगी दिव्य आभा

प्रज्वलित कर एक दीपक तुम चलो तो

इस मरुस्थल पार है उपवन मनोरम
अम्बु शीतल से भरा अनुपम सरोवर
तरु , लता, बहु भांति के सुरभित सुमन हैं
तृप्त होगी प्यास, छाया, सुरभि होगी

पत्र ही बस एक सिर पर धर चलो तो

इस नदी के पार है विस्तृत किनारा
फिर नहीं कोई भंवर, ना तीक्ष्ण धारा
भय नहीं कोई, नहीं शंका कुशंका
जीर्णता मन की मिटेगी शांति होगी

एक बस पतवार संग लेकर चलो तो

ईश के तुम श्रेष्ठतम कृति, हीनता क्यों
पल रही मन में सघन उद्विग्नता क्यों
हो रहा क्यों आज इतना दग्ध मन है
घिर रहा तम क्यों हृदय में गहनतम

क्यों निराशा खोलती अपने परों को

सैकडों मार्तण्ड का है तेज तुममे
वायु से भी है अधिक बल, वेग तुममे
अग्नि से भी तप्त, उर्जा से भरे तुम
यह धरा, आकाश सब होगा तुम्हारा

उठ खड़े हो, प्राण से निश्चय करो तो

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

कौन सा सच खोजते हो ?

जन्म की पहली किरण से , देह के अवसान तक
खींचता है चल रहा वह सृष्टि का रथ अनवरत
हर्ष में हो उल्लसित और वेदना में हो व्यथित
डोर थामे साँस की चलता मनुज का काफिला
यह सत् नही तो क्या भला ?

मोहती मन प्राण को शिशु की मधुर किलकारियाँ
राग भरतीं सरस, मन में प्रिय नयन की बोलियाँ
रागिनी को साँस में भर , हर्ष से उन्मत्त हो
तीर है चंचल सरित के गीत गाता बाँवरा
यह शिव नही तो क्या भला ?

पूर्व नभ में प्रस्फुटित होती मनोरम अरुणिमा
अमराइओं में पत्र से छनती मही पर चन्द्रिका
पुष्प पल्लव पुष्करिणीयां विविध रंगी बहु लता
मेदिनी के वक्ष पर ये लहलहाती हरीतिमा
सुन्दर नहीं तो क्या भला ?

कौन सा सत् , कौन सा शिव और सुन्दर कौन सा
खोजते हो मध्य- वन , गिरि कंदराओं ,गढ़ शिला
क्यों अधिक निष्ठा तुम्हारी मृत्यु में, निर्वाण में
हो नहीं जीवन जगत में और माया, तो कहो
अस्तित्व उनका क्या भला ?

जनमता मरता रहा है जीव सदियों से यहाँ
किंतु शाश्वत सत्य सा जीवन सतत चलता रहा
अवतरित होते रहे हैं देव जीवन केलिए
कोई सिखलाती नहीं गीता , पलायन , विमुखता
बस कर्म ही सबसे बड़ा।

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

जब लौटकर आया

जब तुम्हारे वज़्म से मैं लौटकर आया
खो गया था, रूह को कुछ ढूँढते पाया

करवटें लेता रहा दिन रात पलकों में
मेरी नजरों से तुम्हारा भींगता साया

बैठ जातीं आरजूएं डाल कर डेरा
राह खुशियों की यही है कौन भरमाया

बेकहल सब हो गयीं हैं धड़कने, साँसें
ज्वार सी उठतीं कि कोई चाँद उग आया

सैर कर आती पलों में आसमानों की
आस को उड़ना जमाने बाद है आया

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

जब तुम बरसे

सावन बरसे भादों बरसे
फिर भी पपिहा जल को तरसे
जनम जनम की प्यास बुझी सब
तुम स्वाती बनकर जब बरसे

चाह मिली अभिशाप सदृश
जीवन चलता संत्रास सदृश
ताप मिटा सब दग्ध हृदय का
तुम लिपटे जब चंदन बनके

नील नयन के वितान तले
अब भोर जगे अब रात ढले
अनुराग लिए मुसकान खड़ा
उतरे मधुमास जो तुम बनके

तुम आन मिले हर फूल हँसा
नयनो में मधुरिम आस बसा
खिंच गया हृदय पर इन्द्रधनुष
चहुँ ओर आज तो रंग बरसे

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

वो ही नज़र आने लगे

आज तो हर अक्स में वो ही नज़र आने लगे हैं
नीद में भी, जागते भी, ख्वाब से छाने लगे हैं

थी कभी रंजिश बहुत ही, चल दिए थे छोडकर जो
साथ उनके लौटकर साये मेरे आने लगे हैं

बर्फ से जो जम रहे थे मेरे सीने में अभी तक
साँस से उनकी पिघलकर आस लहराने लगे हैं

थे बहुत प्यारे हमेशा साथ जो देते रहे थे
मिल गया जो साथ उनका दर्द बेगाने लगे हैं

लफ्ज आते उन्के सब नज़रे-इनायत की तरह हैं
हर्फ़ हर इक जिंदगी के आज नज़राने लगे हैं

भींगता हर एक कोना गुलशने-दिल-जान का है
उन्के होठों की नमी से फूल मुस्काने लगे हैं

जिंदगी तो जा रही थी बहुत बेमानी अभी तक
छू लिया उनकी नज़र ने आज कुछ माने लगे हैं

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

तुम मेरी परछाई हो

जीवन की सूनी राहों में , गीत मधुर तुम बिखरायी हो
मेरी अँधियारी रातों में , शशि- प्रभा बनकर छायी हो
मन मृग दर-दर भटक रहा, तुम कस्तूरी बनकर आयी हो
तपते हृदय मरुस्थल पर तुम राग सुधा सी बरसायी हो

सूनी नीदों के आँचल में स्वप्न विविध तुम बिखरायी हो
मेरी वीणा के तारों को राग नया तुम सिखलायी हो
चिर सूने उपवन में उर के, पुष्प सदृश तुम खिल आयी हो
ग्रीष्म काल चलता वर्षों से, तुम बसंत लेकर आयी हो

अभिशाप धुल रहा जीवन का, बनकर गंगा तुम आयी हो
जन्मो से बंजर धरती पर पीली सरसों सी छायी हो
दण्डित मेरे जीवन में, फल सत्कर्मो का बन आयी हो
प्यार बहुत तुमसे है मुझको, तुम मेरी ही परछाई हो

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

मासूम कवितायें

१।
वह मेरी
वक्रता लिए
कलात्मक बातों को
नही समझ पाती है
शब्दों में जड़े
रूपको और अलंकारों को
नही जान पाती है
फिर भी
जब मेरा लिखा पढ़ती है
उसकी आँखें बड़ी बड़ी हो जाती हैं
माथे पर गर्व
आंखों में प्रेम
चेहरे पर मुस्कराहट फैल जाती है
और मुझे
सबसे बड़ी दाद मिल जाती है।

२।
शाम,
जब न दिन होता है न रात
न तो पूरा अँधेरा होता है
और न ही पूरा उजाला
क्यों इतनी प्रिय लगती है ?
क्या इसलिए कि हम
कुछ देख पाने का सुख पाते हैं
और कुछ न देख पाने का
कौतूहल मन में बसाते हैं


रविवार, 1 फ़रवरी 2009

तीन छोटी कवितायें

१ ।
बहुत चाह है
इन दिनों
कि मैं
हवा के झोंके सा छूकर
तुम्हारी पलकों में
इन्द्रधनुषी सपने बिखेर दूँ
मेरी हथेलियों पर
अपना भार रखकर
तुम सितारों को छुओ
और मैं
तुम्हारी उड़ान का सुख
अपनी आंखों में भरूँ

२।
जब कभी
यह यहसास होता है
कि मेरी साँसों में
घुलने वाली हवाएँ
तुम्हे छू कर आयी हैं
मैं स्वयं को जमीन से
छः इंच ऊपर पाता हूँ
मेरे पैरों और जमीन के बीच
एक नर्म सी,
गुदगुदी पर्त बिछ जाती है
जी चाहता है
बस उसपर दौड़ता रहूँ
उम्र भर।

३।
हमारी हर मुलाकात के अंत में
कहा गया
तुम्हारा आखिरी शब्द
बर्फ की चादर सा
बाकी सारे शब्दों को ढँक लेता है
तुम्हारा चेहरा
मुझे उस चादर में
डूबता उतराता सा दीखता है
मैं प्रतीक्षा करता रहता हूँ
बर्फ के पुनः पिघलने का.

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

पुकार

बस गान तेरा ही करुँ

पथ भरा हो तिमिर से या रश्मियों से
हो भरा वह कंटकों से या सुमन से
जो तुम्हारे द्वार तक ले जाए मुझको
बस यही वरदान दो कि मैं सदा उस पंथ पर ही पग धरूँ
बस गान तेरा ही करुँ

तीब्र लहरें हों भले या शांत धारा
दीखता हो दूर कितना ही किनारा
आ रही हो रश्मि तेरी जिस दिशा से
बस यही वर दो उधर ही मैं सदा नाव अपनी ले चलूँ
बस गान तेरा ही करुँ

नीद में होऊं भले या चेतना में
हर्ष में होऊं भले या वेदना में
एक पल भी भूल पाऊं ना तुम्हे
बस यही कर दो सदा ही मैं तुम्हारा हर घड़ी सुमिरन करुँ
बस गान तेरा ही करुँ

खींचती हैं ओर अपनी वासनायें
दंभ भी फुंफकारता है फन उठाये
बिद्ध हूँ मैं पाश में माया जगत के
बन्ध सारे काट दो कि मैं सदा बस ध्यान तुम पर ही धरूँ
बस गान तेरा ही करुँ

सोमवार, 26 जनवरी 2009

कैसे प्रणय का राग गाऊँ

प्रिय कहो कैसे प्रणय का राग गाऊँ ?

भूख से आक्रांत बच्चे की कहीं से
बिलखती , हिय चीरती
आवाज आती है ।
अश्रु भर कर लोचनों में,
क्षीण जर्जर गात ले
फिर कहीं तो माँ कोई
पानी पकाती है ।
उस करुण चीत्कार को,
उन आँसुओं की धार को मैं भूलकर
बोल अपने गीत के कैसे सजाऊँ?

प्रिय कहो कैसे प्रणय का राग गाऊँ?

हड्डियों तक को कँपाती सर्द रातों में,
बैठ कोई व्योम के नीचे
लिपटकर चीथड़े में
काँपता,
सिर को धँसाकर बीच घुटनों के,
रात आँखों में लिए वह जूझता
बर्फ से ठंडे थपेडों से,
टकटकी बाँधे हुए पूर्वी क्षितिज पर
कर रहा मनुहार रवि की
प्रथम किरणों का,
काँपती उस देह को मैं भूलकर
किस तरह सितार में झंकार लाऊँ?

प्रिय कहो कैसे प्रणय का राग गाऊँ?

जोंक सी चिपटी हुयी निज जिंदगी को,
खींचता है चल रहा
चार पहियों पर कोई .
देखता गलते हुए अपनी उंगलियाँ व्याधि से,
बिलबिलाता दर्द से तन के,
जलन ढोता क्षुधा का।
चुनौती देता सकल पुरुषार्थ को,
अस्पृश्य
वह वीभत्सता कटाक्ष करती
मनुज के सौंदर्य पर ।
सड़ती हुयी उस जिंदगी के चित्र को
मानस पटल से ,खुरचकर
कैसे तुम्हारे रूप का मैं गान गाऊं ?

प्रिय कहो कैसे प्रणय का राग गाऊँ ?

काटकर मानव गला नृशंसता से ,
मद भरा, मत-अंध मानव
रक्त से स्नान कर
करता हुआ अभिषेक
दानव का अहम् के,
मनुजता के वक्ष पर रख पैर
तांडव कर रहा
भर रहा हुँकार प्रतिपल।
चीरती जो गर्म लावे की तरह
कर अनसुनी उसको
कहो मैं किस तरह बंशी बजाऊँ ?

प्रिय कहो कैसे प्रणय का राग गाऊँ ?

गा नही सकता प्रणय का गान मैं।
भर रहा मन आर्त नादो से
करुण चीत्कार से
बेधता है हृदय को वह दानवी हुँकार।
खो नही मैं पा रहा इन नर्म बालों में,
ढल नही है पा रहा
सौन्दय अनुपम
बोल बनकर मेरे गीतों में।
है नही उठ पा रहा संगीत कोई
आज इस चंचल हँसी से।
बुझ रहा यह दीप मैं कैसे जलाऊं ?

प्रिय कहो कैसे प्रणय का राग गाऊँ ?

जा रहा मैं

पास उन कातर स्वरों के,
लौटकर कब आ सकूँगा
यह नही मै जानता
पर सुनो,
जब देखना भूखा कोई
भरपेट खाकर मुस्कराए,
सोचना मैं लिख रहा हूँ गीत
तुम्हारे लिए।
जब देखना कि दीन कोई सो सके
गात ढककर , नीद भरकर,
समझना मैं कस रहा
वीणा के तारों को।
और जब मिलते हुए तुम देखना सौहार्द्र से
दो व्यक्तियों को भिन्न मत के ,
समझना संगीत मेरा बज रहा ।
और जब तुम देख पाओगी कहीं मुझको
मरहम लगाते दूसरों के घाव पर,
उस समय जब मुस्कराओगी,
प्रणय का राग फूटेगा स्वतः
मेरे अन्तह में कहीं ,
घुलकर हवाओं में तुम्हारे पास आएगा ।
जल उठेगा दीप फिर
खिल उठेगा पुष्प सा
राग तब वह एक नया आयाम पायेगा ।

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

स्वप्न

कल नीद में
मन स्वप्न कोई बुन रहा था,
यूँ लगा
मैं चाँदनी में बैठ तुमको सुन रहा था।

कूल था कालिन्दि का वह ,
और जिसके पत्र से थी छन रही
शुभ्र उज्जवल चन्द्रिका,
कदम्ब का वह वृक्ष
दिखता अति सुनहरा था।

झर रहे थे पुष्प बनकर
शब्द अधरों से तुम्हारे,
रोपता मन
अंजली में हर सुमन
बाहें पसारे,
और देता अर्घ्य नयनो को ,
उमड़ता नेह जिनमे
दीखता ,
सागर सा गहरा था ।

छू रहा था पवन चंचल
उष्ण करता
मुख मेरा,
बह रहा था बाहु में भर
मद भरा उच्छ्वास तेरा,
और छूता पुनः जाकर
केश घुंघराले तुम्हारे,
बिखरते उड़ते लटों से
स्निग्ध मुखमंडल घिरा था।

दूर तक फैले हुए
रव-हीनता को भंग करती ,
अंक में अपने सरित
भर झिलमिलाते मोतियों से
रश्मि पुंजों को,
उल्लसित हो नाद करती
गान मंगल गा रही थी ।
चिर प्रतीक्षारत खड़ा
वह वृद्ध तरु,
अति नेह से
था पत्र वर्षा कर रहा ,
ज्यों दे रहा पुष्पांजली
अपने मिलन पर।
देखता विस्तृत नयन से
मन में कौतूहल लिए,
क्षणों के नन्हे करों की
नर्म ऊँगली थामकर,
उस कूल पर कालिन्दि के
आ समय ठहरा था ।

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

पुकार

नाविक !
तुम अभी तक कर रहे विश्राम ?
उठो ! चलो ! पकड़ो पतवार !
जल्दी बाँधो पाल ,
हमको जाना है उस पार।

पूर्व क्षितिज में कितना ऊपर
चढ़ आया है सूर्य,
गवां दिए कितने ही पल निद्रा में
हमको जाना कितनी दूर।

आह ! तुम्हारी कितनी जर्जर नाव !
और लहरों का वेग प्रचंड,
उठ रहे पल पल भीषण ज्वार
भर रहे हैं मन में आतंक.

हाय! भरी कितने छिद्रों से
तेरी टूटी नाव ,
और
किनारा भी दिखता अति दूर।
चल रहीं कितनी प्रबल हवाएं ,
नाव डुबाने को आतुर।

भाग रहा द्रुत गति से दिनकर ,
पूर्ण करने को अपनी राह।
बची शेष हैं कुछ घडियां ,
भर रहा सघन मन में अवसाद।

लगता यह दिन भी होगा बेकार ,
न कर पायेंगे हम पार,
अभी तम छाएगा चहुँ ओर
फंसा देगी हमको मँझधार.

आह!
लगा दी कितनी देर
समय से किया नही प्रस्थान .
अभी तो राह हुई है मध्य
क्षीण होता प्रतिपल दिनमान।
बढ़ रहा तिमिर इस ओर,
पसारे अपनी बाँह,
झांक रहा है
क्षितिज ओट से
मुस्काता अवसान ।

सोमवार, 19 जनवरी 2009

पुकार

था पाप गहन कितना मेरा,
जो तुमने मुझको त्याग दिया
जीवन भर के व्यथा विरह का
क्यों मुझको अभिशाप दिया

अंध कूप में बैठा , अंधी
राह टटोला करता हूँ
तेरी ही माया के हाथों
सिसक सिसक कर मरता हूँ
तिमिर भरे राहों पर भटका
डगमग पग मैं धरता हूँ

मेरे जीवन के रश्मि पुंज का
क्यों तुमने है क्षार किया

कितने विविध छलावे तुमने
जगह जगह बिखराए हैं
बाँध मुझे दे धंसा रसातल
कितनी विविध विधाएं है
भूल तुम्हारा पथ मैं भटकूँ
सम्मोहन सब छाये हैं

विस्मृत तुमको कर दूँ , तुमने
क्यों ऐसा संधान किया

व्यथित हृदय रहता है हर पल
पीड़ा भरती जाती है
अकुलाहट सी उठती उर में
हूंक उभर कर आती है
दो पत्र कहीं दे छाँव तपन से
दृष्टि खोज थक जाती है

विकल वेदना का ऐसा क्यों
तुमने पारावार दिया

कब हाथ बढ़ा कर छू लोगे
कब ताप हृदय का जायेगा
कब पूर्ण प्रायश्चित होगी
कब ज्योति पुंज आएगा
काट तिमिर के घेरे को कब
राह तुम्हारी दिखलायेगा

बैठ प्रतीक्षा करता, पथ में
तन मन सारा वार दिया

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

चेतना

तोड़ कर तट बन्ध देखो बह रहा ,
है नदी का आज कितना व्यग्र पानी।
मिस्र होकर बह चला जो अश्रु जल,
क्षत विक्षत ले गात रोती है जवानी॥

लौह तन है जीर्ण प्रतिपल हो रहा,
क्षीण होता हर घड़ी संचित अतुल बल।
वक्ष पर आघात गुरुतर लग रहे ,
छोड़ते नित गहन घावों की निशानी ॥

दीप्त रहता था सदा जो सूर्य के -,
आलोक सा, मुख मलिन पड़ता जा रहा।
रक्त रंजित गात प्रतिपल तड़पता,
बोलता हर घाव दारुण व्यथा वानी ॥

दीर्घ साँसें खींचती , चित्कारती ,
मांगती अस्तित्व अपना ही मनुज से ।
धुंध से जो भर रही सारी दिशाए ,
ढूंढती उनमे कहीं बिसरी कहानी ॥

चाहती श्रृंगार साँसों का पुनः ,
मांगती आधार अपनी चेतना का ।
व्याधि बढ़ता गरल सा है बेंधता ,
मांगती उपचार ले आंखों में पानी ॥

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

फर्क

कितना फर्क है
"तुममें" और "हममें"
यूँ तो हैं दोनों
एक ही मिट्टी से बने,
पर
तुम्हारे बदन पर
कभी पसीने नही आते
और हम हैं कि
सदा पसीने में ही नहाते

तुम्हे परेशान करते हैं
व्यापार के घाटे
हमें बेधती हैं
भूख से
बिलबिलाती आंतें

तुम्हे पीड़ा देता है
तुम्हारी कार का
खराब पड़ा
वातानुकूलन यन्त्र
हमें सताती है
हमारे पैरों में उभरते
छालों की जलन

हमारे पसीने से उगे अनाज
तुम मजे से खाते हो
और हम
अपने ही उगाये दानो को
तरस जाते हैं

तुम कितनी आसानी से
निगल लेते हो
दूसरों के
रक्त से सनी रोटी
हमें संकोच होता है
भर पेट खाने में
अपने ही पसीने से
सनी रोटी

तुम अपने कुत्तों को भी
गर्म कपडे पहनाते हो
और हमारे बच्चे
घुटनों को
पेट में धंसाकर सो जाते हैं

बहुत फर्क है
तुममे और हममें

यह फर्क बस
जीवन के साथ चलता है
पर अंततः
एक दिन करवट बदलता है
दोनों
एक ही श्मशान पर जलाये जाते हैं
दोनों का ही शरीर,
मुट्ठी भर राख में बदलता है

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

पुकार

क्यों करते हो मुझसे खेल बार बार
अगम, अनंत उंचाईयों से
अदृश्य छलिया सा
सुनाते हो अपनी बंशी की तान
भरते हो मन में
चाह एक अनजान
और जब उन्मत्त हो
तुम्हारी ओर बढ़ते हैं पाँव
भेज देते हो अनेकों घातक व्याल
उनका दंश भर देता है गरल रग रग में
छा जाता है चेतना पर उन्माद
भूल जाता हूँ पथ
फिरता हूँ वासनाओं के द्वार द्वार
क्यों करते हो मुझसे खेल बार बार

क्षण भर को दिखा आलोक
फिर कर देते हो गहन अंधकार
भेजते हो अपने प्रहरी
देकर सुनहरे पाश
बाँध कर मुझको वे कर देते हैं सुप्त
नही देखने देते
मुझको अपने ही घाव
पिलाकर मुझे मेरा ही रक्त
कर देते हैं मदहोश
भूल जाता हूँ आलोक
करता हूँ निशा से अभिसार
क्यों करते हो मुझसे खेल बार बार

शनिवार, 10 जनवरी 2009

कब तक

कब तलक भुस ढेर सा यूँ ही सुलगते जाएँगे
कायरों सा चोट खाते और बिलखते जाएँगे

राजपथ पर रंगरलियों सा समां काफ़ी नही
शत्रु के सीने में कब, बन डर उतरते जाएँगे

अब गलीचों के बिना चलने की आदत डाल लो
कल ज़मीं की ताप से छाले उभरते जाएँगे

ज़ख़्म पर जो लग रहे फिर ज़ख़्म, अब तरजीह दो
सब्र के साए में पक नासूर बनते जाएँगे

अहमियत बस खेल सारा जब तलक है चल रहा
अंत में राजा और प्यादा साथ चलते जाएँगे

फ़र्क क्या पड़ता है ग़र साँसों की गिनती घट गयी
ज़िंदगी गर ना रही लफ़्ज़ों में जीते जाएँगे