मैं जानता हूँ
कुछ फर्क नहीं पड़ता
मेरे चीखने से, चिल्लाने से,
जीवन के शतरंज पर
शब्दों की गोटियाँ चराने से।
कुछ भी तो फर्क नहीं पड़ता,
जलती क्षुधाओं को
बेबस आँसुओं को
कलपते तन-मन को
शब्दों की चाशनी में पकाने से।
मैं यह भी जानता हूँ कि
जो उबलता है अन्दर
तप्त लावे की तरह,
सतह पर आते ही
हो जाता है शीत युक्त...
जम जाता है हिम खण्डों सा,
स्पर्श मात्र से ही
ज़माने की ठंडी हवाओं के।
फिर भी
उस उबाल को
उस उफान को
रोकता नहीं
क्योंकि
कम से कम
इतना अहसास तो होता है कि
कड़ाह के नीचे आंच है
और शायद इतनी उम्मीद कि
कभी तो, कुछ तो पिघलेगा।
पल भर के लिये ही सही
मन की सतह क्षैतिज तो हो जाती है।
मंगलवार, 22 दिसंबर 2009
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बहुत सुन्दर रचना है....अपने भीतर उठने वाले भावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।
जवाब देंहटाएंMan ke uhapoh aur santraas ko bahut hi sundarta se aapne shabdon me abhivyakti di hai...
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar rachnaa...
लाख फर्क ना पड़ता हो चीखने चिल्लाने से मगर अनुभूतियाँ और अहसास बयान हुए बिना नहीं रह सकते ...सुन्दर प्रस्तुति ..!!
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