आह हाथों की लकीरों को बदल सकती नहीं
जुगनुओं के ताप से कोई फसल पकती नहीं
यूँ कभी कुछ देर मन बहला भले देती है यह
नाव कागज़ की नदी तो पार कर सकती नहीं
कालिखें कितनी पुतेंगी और अब इतिहास पर
बह रही खूँ की नदी जो, क्यों कभी रुकती नहीं
ज़ब्त करना सीख लो ग़म, क्योंकि चीखों से कभी
आसमाँ झुकता नहीं है, ये जमीं रुकती नहीं
ज़ब्त करना सीख लो ग़म, क्योंकि चीखों से कभी
जवाब देंहटाएंआसमाँ झुकता नहीं है, ये जमीं थमती नहीं
....बहुत सुन्दर !!