सोमवार, 31 अगस्त 2009

अभिसार

वह पूनम की रजनी थी
कुछ उजली सी, कुछ नम सी
तुम चन्दा सी उतरी थी
फिर बरसी थी सावन सी

वह दिवस आज भी पलता
है हर पल उर में मेरे
जब मयूख बन छिन्न किए
जीवन के सघन अँधेरे

अब हर पल सिंचित करतीं
उपवन को मृदुल फुहारें
सावन रहता नभ मेरे
झरतीं हैं रस की धारें

अब चाँद उतरकर नभ से
मेरे आँगन सोता है
अब मेघ नित्य ही द्वारे
नव इन्द्रधनुष बोता है

सुख-सुमन विविध रंगों के
छिटकाती हँसी तुम्हारी
जीवन-आँगन अब मेरा
रमणीय एक फुलवारी

कातर नयनो से तकते
जो पलकों के घेरे से
तुम उन्हें खींच ले आती
रख देती सम्मुख मेरे

मृदु स्पर्श तुम्हारा पाकर
धर मूर्त रुप आ जाते
सपने सारे ही मेरे
अब प्राण गात हैं पाते

प्रथम किरण की आभा सी
उर को रहती हो घेरे
शीतल पावन गंगा सी
हिय में बहती हो मेरे

मुख ज्योति ज्योत्सना जैसी
मुस्कान मोह के डेरे
साँसें चलती हैं जैसे
मलयज के मंद झँकोरे

घन लेकर कुंतल से ही
घनघोर बरसता सावन
वाणी की वीणा से ही
सुर को मिलता है जीवन

सुनते जब नयन हमारे
नयनों की मधुरी वानी
विस्मृत जग होता पल में
नव लोक करे अगवानी

कर-हृदय पकड़ तुम लेती
ले जाती हो उस पथ पर
मंजुल सपने सब पलते-
थे, जहाँ आस के तरु पर

वे दिवस सुनहले कितने
अलसाए तरुणाई के
दबे पाँव तुम आ जाती
चुपके से अँगनाई में

मृदु करतल से ढँक लेती
थी बंद दृगों को मेरे
उच्छ्वास तुम्हारा निर्मित
करता संदल के घेरे

4 टिप्‍पणियां:

  1. लाजवाब प्रस्तुति बहुत बहुत बधाई

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  2. बड़ी तसल्ली से कह रहे हैं ! अभी और आनी है!!
    बहुत दिनों बाद टकसाली हिन्दी की रवानी देखने को मिली है।

    रात गए सन्नाटे में रचना बड़ा सुकूनदायी होता है।

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  3. आज माना की अभिसार की भी पहचान हैं आपकी यह रचना अपने आप में महान है1

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