शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

चेतना

तोड़ कर तट बन्ध देखो बह रहा ,
है नदी का आज कितना व्यग्र पानी।
मिस्र होकर बह चला जो अश्रु जल,
क्षत विक्षत ले गात रोती है जवानी॥

लौह तन है जीर्ण प्रतिपल हो रहा,
क्षीण होता हर घड़ी संचित अतुल बल।
वक्ष पर आघात गुरुतर लग रहे ,
छोड़ते नित गहन घावों की निशानी ॥

दीप्त रहता था सदा जो सूर्य के -,
आलोक सा, मुख मलिन पड़ता जा रहा।
रक्त रंजित गात प्रतिपल तड़पता,
बोलता हर घाव दारुण व्यथा वानी ॥

दीर्घ साँसें खींचती , चित्कारती ,
मांगती अस्तित्व अपना ही मनुज से ।
धुंध से जो भर रही सारी दिशाए ,
ढूंढती उनमे कहीं बिसरी कहानी ॥

चाहती श्रृंगार साँसों का पुनः ,
मांगती आधार अपनी चेतना का ।
व्याधि बढ़ता गरल सा है बेंधता ,
मांगती उपचार ले आंखों में पानी ॥

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें