क्यों करते हो मुझसे खेल बार बार
अगम, अनंत उंचाईयों से
अदृश्य छलिया सा
सुनाते हो अपनी बंशी की तान
भरते हो मन में
चाह एक अनजान
और जब उन्मत्त हो
तुम्हारी ओर बढ़ते हैं पाँव
भेज देते हो अनेकों घातक व्याल
उनका दंश भर देता है गरल रग रग में
छा जाता है चेतना पर उन्माद
भूल जाता हूँ पथ
फिरता हूँ वासनाओं के द्वार द्वार
क्यों करते हो मुझसे खेल बार बार
क्षण भर को दिखा आलोक
फिर कर देते हो गहन अंधकार
भेजते हो अपने प्रहरी
देकर सुनहरे पाश
बाँध कर मुझको वे कर देते हैं सुप्त
नही देखने देते
मुझको अपने ही घाव
पिलाकर मुझे मेरा ही रक्त
कर देते हैं मदहोश
भूल जाता हूँ आलोक
करता हूँ निशा से अभिसार
क्यों करते हो मुझसे खेल बार बार
मंगलवार, 13 जनवरी 2009
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