शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

अभीष्ट

तुम्हारे
घन-केश की
शीतल छाँव को ही
मान लिया था
मैंने अपना अभीष्ट,
जब तक
नहीं भींगा था
तुम्हारे हृदयाकाश से झरते
शीतल फुहारों में ।

तुम्हारी
सीप सी सुन्दर,
झील जैसी गहरी
पनीली आँखों में ही
डूब जाने का स्वप्न देखा था,
जब तक
अनजान था
तुम्हारे अंतह में उमड़ते
अनंत
अथाह
स्नेह सिन्धु से ।

तुम्हारी
सन्दल-देह की सुगंध ही
सबसे अधिक
मादक लगी थी मुझे,
जब तक
किया नहीं था पान
तुम्हारे अन्दर से फूटते
अमिय रसधार का।

किन्तु ,
अब
मैं अपने अंतह में
जीता हूँ
हर पल
तुम्हारा अंकुरण
तुम्हारा विस्तार
और अपनी पूर्णता
एक साथ।

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