तुम्हारे
घन-केश की
शीतल छाँव को ही
मान लिया था
मैंने अपना अभीष्ट,
जब तक
नहीं भींगा था
तुम्हारे हृदयाकाश से झरते
शीतल फुहारों में ।
तुम्हारी
सीप सी सुन्दर,
झील जैसी गहरी
पनीली आँखों में ही
डूब जाने का स्वप्न देखा था,
जब तक
अनजान था
तुम्हारे अंतह में उमड़ते
अनंत
अथाह
स्नेह सिन्धु से ।
तुम्हारी
सन्दल-देह की सुगंध ही
सबसे अधिक
मादक लगी थी मुझे,
जब तक
किया नहीं था पान
तुम्हारे अन्दर से फूटते
अमिय रसधार का।
किन्तु ,
अब
मैं अपने अंतह में
जीता हूँ
हर पल
तुम्हारा अंकुरण
तुम्हारा विस्तार
और अपनी पूर्णता
एक साथ।
सुन्दर रचना है बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत रचना । आभार ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंसत्य प्रेम ही आजीवन है. मुक्ति है........... सुन्दर रचना है रेम का सच्चा भाव जगाती
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सम्पूर्ण कविता के लिए बधाई।
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