था पाप गहन कितना मेरा,
जो तुमने मुझको त्याग दिया
जीवन भर के व्यथा विरह का
क्यों मुझको अभिशाप दिया
अंध कूप में बैठा , अंधी
राह टटोला करता हूँ
तेरी ही माया के हाथों
सिसक सिसक कर मरता हूँ
तिमिर भरे राहों पर भटका
डगमग पग मैं धरता हूँ
मेरे जीवन के रश्मि पुंज का
क्यों तुमने है क्षार किया
कितने विविध छलावे तुमने
जगह जगह बिखराए हैं
बाँध मुझे दे धंसा रसातल
कितनी विविध विधाएं है
भूल तुम्हारा पथ मैं भटकूँ
सम्मोहन सब छाये हैं
विस्मृत तुमको कर दूँ , तुमने
क्यों ऐसा संधान किया
व्यथित हृदय रहता है हर पल
पीड़ा भरती जाती है
अकुलाहट सी उठती उर में
हूंक उभर कर आती है
दो पत्र कहीं दे छाँव तपन से
दृष्टि खोज थक जाती है
विकल वेदना का ऐसा क्यों
तुमने पारावार दिया
कब हाथ बढ़ा कर छू लोगे
कब ताप हृदय का जायेगा
कब पूर्ण प्रायश्चित होगी
कब ज्योति पुंज आएगा
काट तिमिर के घेरे को कब
राह तुम्हारी दिखलायेगा
बैठ प्रतीक्षा करता, पथ में
तन मन सारा वार दिया
सोमवार, 19 जनवरी 2009
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