नम हैं आँखें और हमारे दिल जले हुए
चल रहे हम फिर भी लेकिन लब सिले हुए
आईने को देख रोया जार जार मैं
मुद्दतें थीं हो चुकीं ख़ुद से मिले हुए
आस उड़ने की लिए, बस मैं खड़ा रहा
आसमाँ तो था खुला, "पर" थे सिले हुए
कबसे आई है नहीं तेरी हँसी यहाँ
एक अर्सा हो गया अब गुल खिले हुए
ये हमारी बेवफाई का सिला नहीं
चल गयी जो चाल किस्मत, फासले हुए
खुशबुएँ हाथो से उनके अब भी आ रहीं
क़त्ले गुल की साजिशों में थे मिले हुए
चल रहे हम फिर भी लेकिन लब सिले हुए
आईने को देख रोया जार जार मैं
मुद्दतें थीं हो चुकीं ख़ुद से मिले हुए
आस उड़ने की लिए, बस मैं खड़ा रहा
आसमाँ तो था खुला, "पर" थे सिले हुए
कबसे आई है नहीं तेरी हँसी यहाँ
एक अर्सा हो गया अब गुल खिले हुए
ये हमारी बेवफाई का सिला नहीं
चल गयी जो चाल किस्मत, फासले हुए
खुशबुएँ हाथो से उनके अब भी आ रहीं
क़त्ले गुल की साजिशों में थे मिले हुए
"आस उड़ने की लिए, बस मैं खड़ा रहा
जवाब देंहटाएंआसमाँ तो था खुला, "पर" थे सिले हुए"
अजीब बात है ......अज्ञेय की पंक्तिया याद आयी .......
" मै वह धनु हू जिसकी प्रत्यंचा टूट गयी है ,
स्ख़लित हुआ है बाण यदपि ध्वनि दिगदिगंत में फैल गयी है..."