सेहरा के ज़िस्म पर कोई दरिया उतर गया
अच्छा हुआ वो आँख मेरी नम जो कर गया
मौजें बहा के ले गईं कदमों के सब निशां
बादल बरस के फिर से हरा घाव कर गया
अच्छा हुआ वो आँख मेरी नम जो कर गया
मौजें बहा के ले गईं कदमों के सब निशां
बादल बरस के फिर से हरा घाव कर गया
वो भी चला था साथ मेरे मैं जिधर गया
मैंने तो कोई आइना तोड़ा नहीं कभी फिर भी न जाने अक़्स मेरा क्यूँ बिखर गया
आदत ही तीरगी की मुझे ऐसी पड़ गई (तीरगी = अँधेरा)
थोड़ी सी रौशनी से मेरा दिल सिहर गया
बस मोम का लिबास था ज़ख्मों के ज़िस्म पर
हमदर्द इक नज़र जो पड़ी तन उघर गया
मैंने तो कोई आइना तोड़ा नहीं कभी
जवाब देंहटाएंजाने न फिर भी अक़्स मेरा क्यूँ बिखर गया
खूबसरत प्रस्तुति प्रताप जी।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
बस मोम का लिबास था ज़ख्मों के बदन पर
जवाब देंहटाएंहमदर्द इक नज़र से सारा तन उघर गया
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल...
रिश्ता मिरा सराब से गहरा रहा बहुत
जवाब देंहटाएंवो भी चला था साथ मेरे मैं जिधर गया
लाजवाब कहन है
मज़ा आ गया
दिली दाद कबूल करें
प्रताप जी अपने ब्लॉग पर फालोवर का लिंक लगा दें जिससे आपके ब्लॉग को फालो किया जा सके
जवाब देंहटाएंपाठक के लिए आपके ब्लॉग को नियमित पढ़ने के लिए ये इक आसान रास्ता है
आपकी (जंगल की हवा शहरों में भी चलती है ) पोस्ट चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर मंगलवार १.०६.२०१० के लिए ली गयी है ..
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com/
आदरणीया संगीता जी, मेरी पोस्ट को चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर लेने के लिए बहुत बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंसादर
प्रताप