बुधवार, 4 मार्च 2009

तुम बिन

बीत गए हैं कितने ही दिन, बिन देखे ही तुमको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

कितनी सांझ सुहानी बीती, वीरानी सी
कितने भोर मनोरम बीते, एकाकी में
कितने तारे नभ पर उतरे बिन आभा के
रजनी बीती जलती साँसों की भाथी में

सुरभि, चन्द्रिका, रिमझिम, लगते अनजाने से मुझको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

पग आप मुझे उस पुष्प कुटी तक ले जाते
जहाँ सुरभि फूलों में साँसों की भरती थी
झंकृत होती वीणा लेकर हँसी तुम्हारी
शुभ्र ज्योत्सना में आभा मुख की ढलती थी

सहमे वे पल खड़े देखते कातरता से मुझको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

लांघ देहरी पलकों की वे सकुचाती सी
बाते आतीं, राग सुधा हिय में बरसातीं
लाज रक्तिमा मल देती थी मुख पर तेरे
कम्पित ऊँगली की कोरे जब छू जातीं थीं

तुम बिन मरघट सा लगता सब आ जाओ प्रिय अब तो
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

11 टिप्‍पणियां:

  1. What to say. It’s so good Pratapji. Soul touching, Sensitive, Very soft and beautiful like Pearl. Every time gives new meaning. Will never be tired of reading it again and again. Amazing thoughts and amazing expressions.

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  2. लांघ देहरी पलकों की वे सकुचाती सी
    बाते आतीं, राग सुधा हिय में बरसातीं
    लाज रक्तिमा मल देती थी मुख पर तेरे
    कम्पित ऊँगली की कोरे जब छू जातीं थीं
    bahut hi achchee kavita hai..

    shbdon ka sundar sanyojan aur bhaav abhivyakti behad safal..badhayee.

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  3. विरह की तडफ़ का भाव लिये भावभीनी रचना...

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  4. लांघ देहरी पलकों की वे सकुचाती सी
    बाते आतीं, राग सुधा हिय में बरसातीं
    लाज रक्तिमा मल देती थी मुख पर तेरे
    कम्पित ऊँगली की कोरे जब छू जातीं थीं

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  5. विरह दर्द लिए सुन्दर लगी आपकी यह कविता

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  6. मन पुलकित हो उठा. बहुत सुन्दर. आभार.

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  7. शब्दों के इस सुन्दर झरने में बहना अच्छा लगा ! सुन्दर कविता !

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  8. बहूत गहरा और सूक्ष्म चिंतन प्रेयसी की याद में, जैसे विरह का कोई गीत,
    भाव पूर्ण रचना

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