तुम सदा ही गीत बनकर शब्द में ढलती रहो
तुम सदा ही प्रीत बनकर हृदय में पलती रहो
हर मरुस्थल राह का बहु पुष्प से भर जाएगा
संग मेरे, तुम सदा यदि बाँह धर चलती रहो
मैं अकेला ही सफर में आज तक चलता रहा
शाप कोई, प्राण में, बड़वाग्नि सा जलता रहा
हर तपन, हर पीर, सारी दग्धता मिट जाएगी
तुम मुझे जो, यूँ सदा ही, आँख में भरती रहो
फलित कोई पुण्य मेरे पूर्व जन्मो का हुआ
धार-शीतल गंग की बन प्राण को तुमने छुआ
स्वर्ग की होगी नहीं मुझको कभी भी कामना
तुम सदा सुख स्रोत बन हिय मध्य जो बहती रहो
गुरुवार, 25 जून 2009
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बहुत सुन्दर प्रेमभिव्यक्ति है शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावनाओ से भरी रचना
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा
भाव और समर्पण से भरी आप की कविता
जवाब देंहटाएंदिल को भा गयी,
आप की कविता तो अब मेरे ज़ुबान पर छा गयी,
बहुत बहुत धन्यवाद आपको.
khubsoorat bhaw.............
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता और उससे भी सुन्दर मनोभाव हैं।
जवाब देंहटाएंघुघुती बासूती
सुन्दर और समर्पण का भाव लिए अच्छी रचना है.............. मधुर एहसास से भरी
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