शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

सवैया

चाँद चलै नहि रात कटै, यह सेज जलै जइसे अगियारी
नागन सी नथनी डसती, अरु माथ चुभै ललकी बिंदिया री !
कान का कुण्डल जोंक बना, बिछुआ सा डसै उँगरी बिछुआ री !
मोतिन माल है फाँस बना, अब हाथ का बंध बना कँगना री !

काजर आँख का आँस बना, अरु जाइके भाग के माथ लगा री !
हाथ की फीकी पड़ी मेंहदी, अब पाँव महावर छूट गया री !
काहे वियोग मिला अइसा, मछरी जइसे तड़पे है जिया री !
आए पिया नहि, बीते कई दिन, जोहत बाट खड़ी दुखियारी .

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति भाषा, लय,प्रवाह,उन्माद,विरह औए मर्म सब कुछ एक साथ!!!!!!!!!!!!!!

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  2. laazawaab kavita ka yah roop abhi bhi surkashti hathon me hai...dekh kar bahut achha laga... behad shandar

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  3. aap varavasi se hai to....shiv ko samarpit ...

    ‎"मत्तगयंद सवैया"

    दूर करैं सब कष्ट महा प्रभु ,जाप करो शिव शंकर नामा !

    जो नर ध्यान धरै नित शंकर ,ते नर पावत शंकर धामा !!

    ध्यान लगाय भजो नित शंकर ,लालच मोह सबै तजि कामा !

    जो भ्रमता भव बंधन में तब,पावत ना वह जीव विरामा !!

    राम शिरोमणि पाठक"दीपक"

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