रविवार, 9 मई 2010

आँच गर ज्यादा करोगे रोटियाँ जल जाएँगी


मत हवा दो, अध-बुझी चिंगारियाँ जल जाएँगी
आग जो भड़की दिलों में, पीढ़ियाँ जल जाएँगी

ख़ुद-परस्ती की शमाँ से यूँ घर रोशन करो
बेगुनाहों की बहुत सी बस्तियाँ जल जाएँगी

यूँ फेंको प्यार के दरिया में नफरत की मशाल !
लग गई जो आग सारी कश्तियाँ जल जाएँगी

बैठ ऊँची कुर्सियों पर आग में डालो न घी
गर लपट ऊँची उठी तो कुर्सियाँ जल जाएँगी

सब्र से सेंको, चिता की आग के सौदागरों !
आँच गर ज्यादा करोगे रोटियाँ जल जाएँगी

3 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन पंक्तियां हैं प्रताप जी।
    सिर्फ एक शब्द ..अनेकों.. पर आपत्ति है।
    अनेक शब्द अपने आपमें बहुवचन है। अनेकों जैसा कोई शब्द नहीं है।

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  2. हर रंग को आपने बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  3. "आग जो भड़की दिलों में, पीढ़ियाँ जल जाएँगी"
    "बैठ ऊँची कुर्सियों पर आग में डालो न घी
    गर लपट ऊँची उठी तो कुर्सियाँ जल जाएँगी"

    कुर्सियां तो जलनी ही है एक दिन !

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