हर रोज ही इन गलियों से चीख उभरती है
जंगल की हवा अब तो शहरों में भी बहती है
क़िस्मत की लकीरें भी मिट जायँ गरीबी में
भूनी हुई मछली भी, हाथों से फिसलती है
वो रोटियाँ बुनता है बदन भूख का ढ़कने कोअब चाँद सितारे भी हैं हद से नहीं बाहर
तुझमें जो है उफान, सबब, तेरा उतरना है
टोपी में लगा लो चाहे जितनी कलँगियाँ तुम
पर बाँग से मुर्गे की कभी पौ नहीं फटती है
(शब-सर्द = ठंडी रात )
bahut badiya janab.
जवाब देंहटाएंhttp://sanjaykuamr.blogspot.com/
वाह...बहुत बशिया लगा ये तल्ख़ अंदाज़ भी..
जवाब देंहटाएंwaah sirji bahut badhiya...
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