मंगलवार, 25 मई 2010

जंगल की हवा अब तो शहरों में भी बहती है

हर रोज ही इन गलियों से चीख उभरती है
जंगल की हवा अब तो शहरों में भी बहती  है


क़िस्मत की लकीरें भी मिट जायँ गरीबी में
भूनी हुई मछली भी, हाथों से फिसलती है


वो रोटियाँ बुनता है बदन भूख का ढ़कने को
शब-सर्द जुलाहे की, घुटनों में गुजरती है

अब चाँद सितारे भी
हैं हद से नहीं बाहर
दरम्याने-दिले-इन्सां दूरी नहीं घटती है

तुझमें जो है उफान, सबब, तेरा उतरना है
समतल पे नदी आकर चुपचाप ही बहती है

टोपी में लगा लो चाहे जितनी कलँगियाँ तुम
पर बाँग से मुर्गे की कभी पौ नहीं फटती है


(शब-सर्द = ठंडी रात )

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