रविवार, 9 अक्तूबर 2011

रावण कभी भी तो न मारा जा सका

रावण कभी भी तो न मारा जा सका
बस गात ही खंडित हुआ था
वाण से श्रीराम के.
वह प्रतिष्ठत है युगों से मनुज के भीतर,
सदा पोषित हुआ
आहार, जल पाकर
निरंकुश कामनाओं, इन्द्रियों का.

राम कोई चाप लेकर
खड़ा भी होता अगर है
लक्ष्य सारा-
मारना रावण सदा ही दूसरे का.
स्वयं का रावण विहँसता
खड़ा अट्टहास करता दसो मुख से,
सहम जाता राम
धन्वा छूट जाती है करों से.

यत्न सारा
विफल होता ही रहा
संहार का दससीस के.
बस प्रतीकों पर चलाकर वाण
है अर्जित किया उल्लास के कुछ क्षण मनुज ने.

किन्तु जब तक राम सबके
उठ खड़े होते नहीं संहार को
प्रथम अपने ही दशानन के,
सतत उठती रहेगी
गूँज अट्टहास की,
सहमते यूँ ही रहेंगे राम
विहँसता रावण रहेगा सर्वदा.

9 टिप्‍पणियां:

  1. किन्तु जब तक राम सबके
    उठ खड़े होते नहीं संहार को
    प्रथम अपने ही दशानन के,
    सतत उठती रहेगी गूँज अट्टहास की,
    सहमते यूँ ही रहेंगे राम
    विहँसता रावण रहेगा सर्वदा.

    बिलकुल सही बात कही सर!

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    ‘जो मेरा मन कहे’ पर आपका स्वागत है

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  2. गहन भावो का समावेश ..बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  3. सार्थक चिंतन... सुंदर रचना..
    सादर...

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  4. किन्तु जब तक राम सबके
    उठ खड़े होते नहीं संहार को
    प्रथम अपने ही दशानन के,
    सतत उठती रहेगी गूँज अट्टहास की,
    सहमते यूँ ही रहेंगे राम
    विहँसता रावण रहेगा सर्वदा.

    बहुत सुन्दर ! गहन अभिव्यक्ति ! सार्थक चिंतन !

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  5. बहुत गहन और सटीक अभिव्यक्ति...

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  6. किन्तु जब तक राम सबके
    उठ खड़े होते नहीं संहार को
    प्रथम अपने ही दशानन के,
    सतत उठती रहेगी गूँज अट्टहास की,
    सहमते यूँ ही रहेंगे राम
    विहँसता रावण रहेगा सर्वदा.

    bahut sundar aur sarthak rachna

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