देश बना बाज़ार अब, चारो ओर दुकान
राशन है मँहगा यहाँ, सस्ता है ईमान
राजा- रानी तो गए, गया न उनका मंत्र
मतपेटी तक ही सदा, रहा प्रजा का तंत्र
सर्वाहारी क्यों इसे, बना दिया भगवान ?
ज़र,जमीन,पशु-खाद्य तक, खा जाता इंसान
गंगाएँ कितनी बहीं, 'बुधिया' रहा अतृप्त
जब जब है सूखा पड़ा, नेता सारे तृप्त
बापू , तुम लटके रहो, दीवारों को थाम
नमन तुम्हें कर नित्य हम, करते 'अपना काम'
राशन है मँहगा यहाँ, सस्ता है ईमान
राजा- रानी तो गए, गया न उनका मंत्र
मतपेटी तक ही सदा, रहा प्रजा का तंत्र
सर्वाहारी क्यों इसे, बना दिया भगवान ?
ज़र,जमीन,पशु-खाद्य तक, खा जाता इंसान
गंगाएँ कितनी बहीं, 'बुधिया' रहा अतृप्त
जब जब है सूखा पड़ा, नेता सारे तृप्त
बापू , तुम लटके रहो, दीवारों को थाम
नमन तुम्हें कर नित्य हम, करते 'अपना काम'
बहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंसादर
कल 06/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
जवाब देंहटाएं♥
प्रिय बंधुवर प्रताप नारायण सिंह जी
सस्नेहाभिवादन !
शायद पहली बार पहुंचा हूं आपके यहां …
बहुत परिपक्व दोहे लिखे हैं आपने …
देश बना बाज़ार अब, बिकता हर सामान
राशन है महंगा यहां , सस्ता है ईमान
बहुत ख़ूब ! अच्छा लिखते हैं आप !
…अर्थात् आप भी छंदबद्ध काव्य-सृजन करते हैं
पुनः फ़ुरसत में आपकी पिछली पुरानी पोस्ट्स देखने आऊंगा … :)
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
इतनी उच्च कोटि के दोहे कभी कभार ही पढ़ने को मिलते हैं। आनंद आया मित्र। मेरे ब्लॉग http://thalebaithe.blogspot.com/ पर भी पधारिएगा वहाँ छंदों पर काम चलता रहता है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सधे हुये दोहे....
जवाब देंहटाएंसादर बधाई....